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१४२ उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन ३२) गंधाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे य कह सुह से, सभागकाले य अतित्तलाभे ।।५४।। गधे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुद्धिं । अतुविदेोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥५५॥ तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणी, गधे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वडूढइ लाभदासा, तत्थावि दुक्खा न बिमुच्चई से । मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंता, गधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ।।५७।। गंधाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कुत्तो सुह हेाज्ज कयाई किंचि । तत्थोवभागे वि किलेसदुक्खं, निब्वत्तई जस्स कएण दुक्ख ॥ ५८ ॥ एमेव गधम्मि गओ पओस, उवेइ दुक्खाहपर पराओ। पदुद्दचित्तों य चिणाइ कम्म, जौं से पुणे हाइ दुहं विवागे । गधे विरत्तो मणुआ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पए भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलास ॥ जीहाए रस गहणं वयंति, त रागहे तु मणुन्नमाहु । त दासहेउ अमणुन्नमाहु, समा य जो तेसु स वीयरागो । रसस्स जीह गहण वयंति, जीहाए रस गहण वयंति । रागस्स हे समणुन्नमाहु, दासस्स हे अमणुन्नमाहु ॥६२।। रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिब्, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे वडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा
आमिसभोगगिद्धे ।। ६३ ।।