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उत्तराध्ययनसूत्रम् (अध्ययन ३२ )
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विवित्तसेज्जा सणजंतियाण, ओमासणाण दमिइंदियाण । न रागसत् धरिसेई चित्तं पराइओ वाहिरिवे| सहेहिं ||१२|| जहा बिराला सहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बंभयारिस्स खमा निवासा || न लावण्णविलासहास, न जंपिय इंगियपेहिय वा । इत्थीण चित्त'सि निवेसइत्ता, दट्टु ववस्से समणे तवस्सी ||१४|| अदंसण चेव अपत्थण च, अचिंतण चेव अकित्तण ं च । इत्थीजणस्सारियझाणजुग्गं, हियं सया बंभवए रयाणं ॥ १५ ॥ कामं तु देवीहि विभूसियाहि न चाइया खाभइउं तिगुत्ता । तहा वि एग तहियं ति नच्चा, विवित्तवासा मुणिण पसत्था || मोक्खाभिकखस्स उ माणवरस, संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे | नेयारिस दुत्तरमत्थि लोए, जहित्थिओ बालमणोहराओ || १७ || एए य संगे समइकमित्ता सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा | जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा || १८ || कामाणुगिद्धिप्पभव खु दुक्ख सव्वस्स लोगस्स सवेद्गरस । जे काइयां माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागेो ॥ जहा य कि पागफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा । ते खुडुए जीविय पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ॥ जे इंडियाण विसया मणुन्ना, न तेसु भाव निसिरे कयाइ । नया मणुन्नेसु मण न कुज्जा, समाहिकामे समणे तस्सी || चक्रस रूवं गहणं वयति, तं रागहेउ तु मणुन्नमाहु । तं दास अमणुन्नमाहु, समा य जो तेसु स वीयरागो ||
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