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________________ प्रकरण-६ स्याद्वाद में सभी दर्शनों का समाधान है. संसार में सभी पदार्थ (जड़ तथा चेतन) सत् , असत् रूप, नित्य अनित्य और सामान्य विशेष रूप हैं। उन पदार्थो को यथास्थित रूप से समझने से जीव वस्तु का पूर्ण और सत्य ज्ञान होता है । जैन दर्शन किसी भी बात को एकान्त सत्य या एकान्त असंत्य, एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य एवं एकान्त सामान्य या एकान्त विशेष नहीं कहता। परन्तु वस्तु मात्र सत्-असत्, नित्य-अनित्य और सामान्य विशेष इस प्रकार उभय रूप है ऐसा कहता है । तथा बिना सत्य का असत्य, बिना नित्य का अनित्य और बिना सामान्य का विशेष भी नहीं है, ऐसा मानता है। अर्थात् उभय रूप मानता है। जो सत्य है उसकी मी व्याख्या ठीक ठीक समझने की आवश्यकता है । इसके लिये तत्वार्थ सूत्र में कहा है: "उत्पादव्ययधौव्ययुक्तम् सत्" । यानि जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त अर्थात तदात्मक है वह "सत्" कहा जाता है। मतलब यह है कि वस्तु उत्पन्न होती है, उसका व्यय होता है और उसका सत्व (मूल-पदार्थ) कायम रहता है। इस "त्रीपदी' को सिद्धांत कहते हैं। उसकी रचना सूत्रज्ञान के परंपरा के अनुसार भगवान महावीर के पश्चात् श्री गणधरों ने (उनके मुख्य शिष्यों ने) की है। वे परम सुत गीतार्थी होने से इस सिद्धांत की सत्यता और सर्वोत्तमता में शङ्का की कोई जगह नहीं है।
SR No.022554
Book TitleSyadvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
PublisherShankarlal Dahyabhai Kapadia
Publication Year1955
Total Pages108
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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