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________________ प्रकरण-४. स्याद्वाद वस्तु का अनेक धर्मात्मकपना बताता है। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, ऐसा स्याद्वाद बताता है। इससे विज्ञान को विशेष पुष्टि मिलती है। यद्यपि, भगवान महावीर के सिद्धांतों का मुख्य आदर्श जो इस असार संसार का त्याग करके मुक्ति मार्ग की तरफ प्रयास कराने का है, फिर भी यदि उसका सदुपयोग किया जाय, तो वह व्यवहारिक रीति से भी जगत का कल्याण कारक हो सकता है। यह निःशंक तथा निर्विवाद है । वस्तु मात्र अनेक धर्मात्मक है । उदाहरणार्थ, एक ही मनुष्य अपने भाजे की अपेक्षा से मामा है, अपने दामाद की अपेक्षा से श्वसुर भी है। एक हाथी जैसे प्राणी को भी अनेक दृष्टियों से देखा जा सकता है । उसके गंड स्थल से मद भरता हुआ जब मनुष्य देखता है, तब उसे मतंगज कहते हैं। हाथी को मुख तथा सुड से पानी पीते देख उसको द्वीप कहते हैं । उसके आगे के विशाल दांतों को देख दन्ती कहते हैं । सुण्ड से सभी काम करता है, उस सुण्ड को हाथ समझ कर लोग हस्ती कहते हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न अपेक्षा से देखा जाय तो प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म रहे हुये हैं, यह बात स्पष्ट समझ में आ जायगी। एक ही गेहूँ की रोटी भी बनती है, पाउं भी बनता है, घेवर, पुरी यानी कई चीजें बनाई जा सकती हैं। गेहूँ में इस प्रकार की अनन्त धर्मात्मक शक्ति नहीं होती तो ऐमा न बनता।
SR No.022554
Book TitleSyadvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
PublisherShankarlal Dahyabhai Kapadia
Publication Year1955
Total Pages108
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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