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९।१ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६५ * सूत्रार्थ - पहले के दो ध्यान 'एकाश्रित' एवं सवितर्क होत हैं। इसमें से पहला ध्यान सविचार होता है।
* विवेचनामृतम् * प्रारम्भ के दो शुक्लध्यान-पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क का आश्रय एक ही द्रव्य है- ये पूर्वधर-श्रुतकेवली होते है। इनमें प्रथम एवं द्वितीय ध्यान सवितर्क होता है।
यहाँ पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान सविचार होता है- यह ध्यान रखना चाहिए। ॐ मूल सूत्रम् -
अविचारं द्वितीयम्॥४४॥
卐 सुबोधिका टीका अविचारमिति। द्वितीयं शुक्लध्यानं विचाररहितं भवति। द्वितीयञ्च शुक्लध्यानम्एकत्ववितर्कः। अविचारं सवितर्क द्वितीयं ध्यानम्। * सूत्रार्थ - द्वितीय शुक्लध्यान (एकत्ववितर्क) विचाररहित होता है।
* विवेचनामृतम् * दूसरा एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान विचार रहित होता है किन्तु वितर्क सहित होता है। श्रुतज्ञान को ही वितर्क कहते हैं।
अर्थव्यञ्जन तथा योग की संक्रान्ति को विचार कहते हैं। ॐ मूल सूत्रम् -
वितर्कः श्रुतम् ॥४५॥
卐 सुबोधिका टीका वितर्क इति। श्रुतज्ञानमेव वितर्कः कथ्यते। श्रुतज्ञानं द्विधा- अङ्गबाह्यञ्चेति। इति तत्त्वार्थाधिगमस्य प्रथमेऽध्याये विशेषरूपेण प्रतिपादितमेव- 'श्रुतमनिन्द्रियस्येति सूत्रे॥ सूत्रार्थ - श्रुतज्ञान को ही वितर्क कहते हैं।
* विवेचनामृतम् * वितर्क का तात्पर्य-श्रुतज्ञान से है। अतएव सूत्रकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि श्रुतज्ञान को ही वितर्क कहते हैं।