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९।१ ] ___श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६३ जब ध्यान करने वाला पूर्वधर होता है तब वह पूर्वगत श्रुत के आधार पर और जब पूर्वधर न हो तब अपने सम्भावित श्रुत के आधार पर किसी भी परमाणु आदि जड़ में या आत्मारूप चेतन में एक द्रव्य में उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्तत्व, अमूर्तत्व आदि अनेक पर्यायों का द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक आदि विविध नयों के द्वारा भेदप्रधान चिन्तन करता है और यथासम्भव श्रुतज्ञान के आधार पर किसी एक द्रव्यरूप अर्थ पर से दूसरे द्रव्यरूप अर्थ पर या एक द्रव्यरूप अर्थ पर से पर्यायरूप अन्य अर्थ पर अथवा एक पर्यायरूप अर्थ पर से अन्य पर्यायरूप अर्थ पर, इसी शब्द पर से अर्थ पर चिन्तन करने के लिए प्रवृत्त होता है तथा मन आदि किसी भी एक योग को छोड़कर अन्य योग का अवलम्बन लेता है तब वह ध्यान-पृथकत्ववितर्कसविचार कहलाता है।
२. एकत्ववितर्क निर्विचार - जब भेद प्रधान चिन्तन में मन स्थिरता प्राप्त कर लेता है, तब अभेदप्रधान चिन्तन में स्वत: ही स्थिरता प्राप्त कर लेता है। यहाँ वस्तुके एक रूप को ही ध्येय बनाया जाता है। यदि किसी एक पर्याय रूप अर्थ पर चिंतन चलता है तो उसी पर वह चिन्तन चलता रहता है। साधक, जिस योग में स्थिर है उसी योग पर अटल रहता है। इसमें विषय या योग का परिवर्तन नहीं होता है। जैसे-निर्वात-हवा रहित स्थान पर दीपक स्थिरता के साथ जलता है वैसे ही विचार + पवन से मन अकम्प रहता हुआ ध्यान की लौ लगाए रहता है। जैसे निर्वात गृह में भी दीपक को सूक्ष्म हवा मिलती रहती है, वैसे ही इस ध्यान में भी साधक सूक्ष्म विचारों पर चलता है, यह ध्यान सर्वथा निर्विचार ध्यान नहीं है किन्तु विचार स्थिर हो जाते है-किसी एक वस्तुतत्त्व पर।
___एक ही वस्तु या विषय पर स्थिरता प्राप्त होने पर मन, शान्त होता है, उसकी चंचलता मिट जाती है, निष्कम्पता प्रतिष्ठित होती है। अन्ततगत्वा ज्ञान के सम्पूर्ण आवरणों का विलय हो जाने पर सर्वज्ञता प्रकट होती है।
३. सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति - यह ध्यान, अत्यन्त सूक्ष्म ध्यान है। इस ध्यान की स्थिति को प्राप्त करने के पश्चात् ध्याता, अपने ध्यान से कदापि पतित नहीं होता है। यह ध्यान केवली वीतराग को होता है। इस ध्यान की स्थिति से पहले स्थूलकाय योग के सहारे स्थूलमन योग को सूक्ष्म बनाया जाता है फिर सूक्ष्म मन के सहारे स्थूलकाय योग को सूक्ष्म बनाया जाता है। तदुपरान्त काययोग के अवलंबन से सूक्ष्म मन-वचन का निरोध करते हैं। उस स्थिति में मात्र सूक्ष्मकाय योगश्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म प्रक्रिया ही अवशिष्ट रहती है- ऐसी स्थिति का ध्यान हैसूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति।
४. व्युपरतक्रियानिवृत्ति - इस ध्यान में श्वासोच्छ्वास स्थिति समाप्त हो जाती है। आत्मा सर्वथा यागों का निरोध कर देती है। आत्मप्रदेश सर्वथा निष्कम्प हो जाता है।
इस चतुर्थ ध्यान के प्रभाव से सकल आस्रव और बन्ध के निरोधपूर्वक शेष बचे कर्मों के क्षीण होजाने के कारक मोक्ष प्राप्त होता है।