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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १३ २. मार्दव - मार्दव = मद, मान का निग्रह। चित्त में मृदुता तथा व्यवहार में नम्रता वृत्ति को 'मार्दव' कहते हैं।
मार्दव गुण को धारण करने से या इसकी ओर अहर्निश चित्तवृत्ति को आकृष्ट करने से जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, श्रुतविज्ञान, इष्टवस्तु की प्राप्ति तथा वीर्यादि अष्ट प्रकारक मदों से होने वाली चित्त की उन्मत्ता, अहंता इत्यादि दोषों का निग्रह होता है।
इसका विशद स्पष्टीकरण इस प्रकार समझा जा सकता है- बाह्य तथा आभ्यन्तर सम्पत्ति का मद बाह्य तथा अभ्यन्तर सम्पत्ति का मद नहीं करना, अहंकार वृत्ति नहीं रखना, अपने से श्रेष्ठ जनों के प्रति श्रद्धा, विनय बहुमान तथा छोटों के प्रति वात्सल्य रखना, इत्यादि व्यवहार नियमों के पालन से 'मार्दव' की अभिव्यक्ति होती है।
'मैं कुछ हँ ' ऐसी वृत्ति बड़ों के प्रति उद्धत बर्ताव, बड़ों की उपेक्षा, स्वप्रशंसा तथा परनिन्दा इत्यादि से मद-मान की अभिव्यक्ति होती है।
मद और मान - ये दोनों शब्द अहंकार के स्वरूप होते हुए भी अर्थ की दृष्टि से कुछ भिन्नता रखतें है। जैसे किसी भी प्रकार- 'मैं कुछ हूँ' ऐसी वृत्ति 'मान' कहलाती है। किन्तु उत्तम जाति आदि के कारण 'मैं कुछ हूँ'-ऐसी वृत्ति 'मद' कहलाती है।
जाति कुल, रूप, ऐश्वर्य, विज्ञान, श्रुत, लाभ तथा वीर्य (शक्ति) के रूप में मद आठ प्रकार है। + माता का वंश-जाति है। • पिता का वंश-कुल है। + शारीरिक सौन्दर्य रूप है। • धन-धान्य आदि बाह्य सम्पत्ति-ऐश्वर्य है। + औत्पातिकी आदि चार प्रकार की बुद्धि विज्ञान है। • जिनोक्त शास्त्र के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान श्रुत है। + इष्ट वस्तु की प्राप्ति को लाभ कहते है।
मद एवं मान का परित्याग करने से मादर्वधर्म विकसित होता है। जीवात्मा मान-मद के कारण स्वप्रशंसा तथा पर निन्दा में निरत रहता है। इसके कारण इस लोक में अनेक अनर्थों को प्राप्त कर अशुभ कर्मों से प्रवत्त होकर परलोक में भी अनर्थपरिणाम भोगता है। मान-मद के कारण ही अहंकारी जीवात्मा, अन्य कथित हितकारी बातों को नहीं सुनता है या सुनकर अनसुनी कर देता। सुनकर अपनाने की बात तो बहुत दूर ही रहती है।