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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
को अप्रत्यक्ष रूप से सुदृढ़ बनातें है । इसीलिए तो कहा है
'निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय ।'
निन्दक के प्रति क्रोध करना, साधक के लिए अच्छा नहीं है । निन्दक पर क्षमा भाव रहना, साधक की उत्कृष्टतसाधना का नमूना है।
४. स्वकर्मोदय
क्रोध का कोई निमित्त साधक के समक्ष उपस्थित हो तो विचार करना चाहिए कि यह तो स्वयं के कर्मों का उदय है । प्रस्तुत विषय या व्यक्ति तो निमित्त मात्र है। उसके प्रति मुझे क्रुद्ध नहीं होना चाहिए । मैनें जो कर्म किएं है, उसके परिणाम स्वरूप यह निमित्त रूप में आया है । मेरा अशुभ कर्म ही मुझे सता रहा है तो इस निरपराध पर मैं क्रोध क्यों करू? यह भावना साधक की साधना में आध्यात्मिक उत्कर्ष लाती है। स्वकर्मोदय मानकर, आत्मगर्हा, आत्मनिन्दा करते, हुए क्रोध के निमित्तों पर लेशमात्र भी क्रोध, द्वेष, वैमनस्य न रखते हुए साधक क्षमा (अहिंसा) के उन्नत शिखर पर आरूढ़ होने लगता है।
५. क्षमा गुण -
क्षमा भावना की गुण गौरवमयी परम्परा का, महापुरूषों के जीवन में समागत विभिन्न क्षमा के उत्कृष्ट दृष्टान्तों का चिन्तन, मनन तथा अनुवर्तन करते रहने से भी क्रोध का आवेग, क्रोध का संवेग रूक सकता है।
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क्षमा भावना की सतत आराधना से स्व- पर शान्ति का अबाध, निरूपद्रव मार्ग प्रशस्त होता है। क्षमा की साधना से पूर्वबद्ध अशुभ कार्यों की निर्जरा होती है। सद्गुण सौरभ से आत्म-सदन महक उठता है।
'क्षान्तिहीना शोभन्ते
९ । १
क्षमा समस्तों का आधार है। क्षमा के बिना समस्त गुण, निराधार होने के कारण सुशोभित नहीं हो पातें है। कहा भी है
न
१. क्रोधाद् भवति संमोहः, संमोहात् स्मृति विभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशों, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥
सर्वे, निराश्रयाः ।'
गुणाः
(उप. भव . )
( गीता अ. २, श्लोक ६३)
अर्थात् क्रोध से मूढ़ता आती है। मूढ़ता से स्मण शक्ति का विनाश होता है । स्वणशक्ति के विनाश से, बुद्धि - विवेक का विनाश हो जाता है। विवेक का विनाश होते ही साधक की साधना भंग हो जाती है, साधक स्वयं विनष्ट हो जाता है।