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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।३१
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इस तरह दो वाक्य हुए। यहाँ प्रथम वाक्य का अर्थ यह हुआ कि आत्मा अपेक्षा से नित्य है और जिस अपेक्षा से नित्य है उस अपेक्षा से नित्य ही है। तथा अन्य दूसरे वाक्य का अर्थ यह हुआ किआत्मा अपेक्षा से अनित्य है, और जिस अपेक्षा से अनित्य है उस अपेक्षा से अनित्य ही है ।
उक्त दोनों वाक्यों के अनुसन्धान में तीसरा वाक्य भी नीचे प्रमाणे है -
(३) "आत्मा अपेक्षा से नित्य ही है, अपेक्षा से अनित्य भी है ।" इस वाक्य से क्रमश: आत्मा की नित्यता का तथा श्रनित्यता का प्रतिपादन होता है ।
पूर्व के दो वाक्यों से हुई जानकारी इस तीसरे वाक्य से दृढ़ बनती है ।
अब कोई कहता है कि, "आत्मा किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य है ।" इस तरह आत्मा के नित्यत्व और अनित्यत्व इन दो धर्मों का क्रमशः प्रतिपादन किया; किन्तु युगपत् क्रमबिना, एकसाथ में आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी है, ऐसा जानना ।
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इस सम्बन्ध में कहना पड़ेगा कि - क्रमबिना एकसाथ में है" इस तरह नहीं समझाया जा सकता। क्योंकि जगत्- विश्व जिससे नित्यता और अनित्यता इन दोनों धर्मों का युगपत् - एकसाथ में बोध हो सके ।
"आत्मा नित्य भी है, अनित्य भी में ऐसा एक भी शब्द नहीं है कि,
इसलिए क्रमश: नित्य और अनित्य ये दो शब्द वापरने ही पड़ते हैं । और अनित्य रूप में एक साथ नहीं कही जा सकती ।
आत्मा नित्य रूप में
इसलिए इसका अर्थ यह हुआ कि अपेक्षा से [अर्थात् – नित्य और अनित्य इन उभय स्वरूपों में एकसाथ में पहचाने जाने की अपेक्षा से ] आत्मा प्रवक्तव्य ही है । इस तरह चौथा वाक्य (४) "आत्मा अपेक्षा से अवक्तव्य ही है" ऐसा बनता है । प्रत्येक वाक्य में जकार का ही अर्थ पूर्व में हुए माफिक ही है ।
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उक्त इन चार वाक्यों में प्रथम के दो प्रधान मुख्य हैं। प्रथम दो वाक्यों के अर्थ को सुदृढ़ रीति से समझने के लिए तीसरा वाक्य है । तीसरे वाक्य का अर्थ एक साथ नहीं कह सकते हैं । इसलिए इसे समझाने के लिए चौथा वाक्य है। इन चार वाक्यों के मिश्रण से अन्य तीन वाक्य बनते हैं ।
नित्य पद तथा प्रवक्तव्य पद से पाँचवाँ पद, अनित्य पद और प्रवक्तव्य पद से छठा पद, एवं नित्यपद, अनित्यपद तथा अवक्तव्यपद इन तीन पदों से सातवाँ वाक्य बनता है । वे सब क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं
(५)
"आत्मा अपेक्षा से नित्य ही है, अपेक्षा से प्रवक्तव्य ही है ।" इस तरह यह पाँचवाँ वाक्य । उसका श्रर्य यह है कि--जैसे अपेक्षा से आत्मा नित्य ही है, तथा एक अपेक्षा से आत्मा नित्य ही है, अन्य अपेक्षा से अनित्य ही है; किन्तु इन दोनों को एक ही साथ कह सके ऐसा नहीं ही है । अब आगे के दो वाक्यों में भी प्रवक्तव्य का यही अर्थ समझना ।