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________________ ५॥३१ ] पञ्चमोऽध्यायः कर्तृत्व काल की अपेक्षा भोक्तृत्व काल में जीव-आत्मा की अवस्था बदल जाती है, इसलिए कर्म और फल के समय का अवस्थाभेद बताने का हो तब पर्यायदृष्टि से अनित्यत्व प्रतिपादन करते समय पर्यायदृष्टि की मुख्यता रहेगी तथा द्रव्यदृष्टि नित्यत्व की भी गौणता रहेगी। ___ इसी तरह विवक्षा के और अविवक्षा के कारण किसी समय जीव-आत्मा को नित्य कह सकते हैं तथा किसी समय अनित्य भी कह सकते हैं। एवं जब दोनों धर्म नित्य और अनित्य एक साथ कहने की इच्छा हो उस समय दोनों धर्मों को युगपत् यानी एक साथ कहने के लिए वाच्य शब्द न होने से जीव-प्रात्मा को प्रवक्तव्य कहते हैं। उपर्युक्त नित्य, अनित्य, और प्रवक्तव्य तीन प्रकार की वाक्य रचनाओं के मिश्रण से अन्य चार वाक्य रचनाएँ और बनती हैं। जैसे- (१) नित्य, (२) अनित्य, (३) नित्यानित्य, (४) प्रवक्तव्य, (५) नित्य प्रवक्तव्य, (६) अनित्य प्रवक्तव्य, तथा (७) नित्यानित्य प्रवक्तव्य । इसी सप्त वाक्य रचना को सप्तभंगी कहते हैं । * सप्तभङ्गी * अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की दृष्टि से वस्तु को वास्तविकपने पहिचानना हो तो सात वाक्यों से पहचान सकते हैं। प्रश्न-प्रात्मा कैसी है ? वह नित्य है कि अनित्य है ? उत्तर-'प्रात्मा नित्य है' ऐसा कहने में जो आए तो, यह उत्तर अपूर्ण-अधूरा होने से यथार्थ नहीं है। क्योंकि प्रात्मा नित्य भी है और अनित्य भी है। प्रत्येक वस्तु-पदार्थ में अनेक धर्म रहे हुए हैं। इसलिए हमें वस्तु के पहचानने में यह ख्याल रखना चाहिए कि जिस धर्म को आगे करके हम वस्तु को पहचानते हैं, उसके अतिरिक्त भी वस्तु में अनेक धर्म हैं। ___ यहाँ 'आत्मा नित्य है' ऐसा कहने में आत्मा में अनित्यता धर्म का निषेध होता है। इससे समझने वाला व्यक्ति यह समझता है कि प्रात्मा केवल नित्य है, अनित्य नहीं। अत: "अात्मा नित्य है" ऐसा वाक्य अपूर्ण-अधरा होने से अयथार्थ है। "अपेक्षा से प्रात्मा नित्य है" ऐसा कहने में या जाए तो यहाँ 'अपेक्षा' शब्द पाने से अनित्यता का निषेध नहीं होता है। "अपेक्षा से प्रात्मा नित्य है" ऐसा बोध होने के साथ ही मन में प्रश्न होता है कि, आत्मा किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य भी होना चाहिए। इस प्रश्न के समाधान के लिए अन्य-दूसरा वाक्य कहना पड़ता है कि-"प्रात्मा अपेक्षा से अनित्य भी है।" ये दोनों वाक्य अपूर्ण-अधूरे हैं। क्योंकि, जिस अपेक्षा से प्रात्मा नित्य है उस अपेक्षा से आत्मा नित्य ही है, यह नहीं कि इसी अपेक्षा अनित्य भी है। इसी भाँति जिस अपेक्षा से आत्मा अनित्य है, उस अपेक्षा से तो अनित्य ही है, यह नहीं कि उस अपेक्षा से नित्य भी है। इन दोनों वाक्यों में 'ज' कार जोड़ने की जरूरत है। अर्थात् - (१) “प्रात्मा किसी अपेक्षा से नित्य ही है।" तथा (२) "प्रात्मा किसी अपेक्षा से अनित्य ही है।"
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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