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________________ ५२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ५।२६ प्रस्तुत वर्तमान सूत्र में चाक्षुष शब्द ही विधानरूप है। अर्थात् यह चक्षुग्राह्य स्कन्धों का ही बोधक है, तो भी यहाँ पर उसको सर्वेन्द्रिय लाक्षणिक माना है । भेद, संघात का निमित्त पाकर वे ऐन्द्रिय बन जाते हैं। तथा वे ही स्थल से सूक्ष्म और विशेष इन्द्रियग्राह्य से एक इन्द्रियग्राही हो जाते हैं। जैसे-नमक तथा हींग इत्यादि पदार्थों का स्पर्श, रस, घ्राण तथा नेत्र इन चारों इन्द्रियों द्वारा ज्ञान हो सकता है। अर्थात् वे चतुष्केन्द्रियग्राही हैं, तथापि उनको यदि जल-पानी में घोल दिया जाय तो वही वस्तु केवल घ्राणेन्द्रिय (नाक) और रसनेन्द्रिय (जीभ) ग्राही बन जायेगी। * प्रश्न–चाक्षुष स्कन्ध बनने के लिए दो कारण बताये, किन्तु अचाक्षुष के लिए भेदविधान __ क्यों नहीं ? उत्तर–वर्तमान अध्याय के २६ वें सूत्र में सामान्यरूप से स्कन्ध मात्र की उत्पत्ति के लिए तीन हेतु कहे गये हैं। यहाँ पर तो केवल विशेष स्कन्ध की उत्पत्ति अर्थात् अचाक्षुष स्कन्ध से चाक्षुष स्कन्ध बनने के हेतु कहे गये हैं । सामान्य विधान अर्थात् सूत्र २६ के कथनानुसार अचाक्षुष स्कन्ध बनने के लिए संघात, भेद तथा संघातभेद ये तीनों कारण हैं। * प्रश्न-वर्तमान अध्याय के सूत्र १-२ में धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का कथन है, किन्तु वे किस प्रकार से जाने जाते हैं ? उत्तर-वे सब सत् लक्षण से जाने जाते हैं। इसलिए सत् लक्षण की व्याख्या करते हैं । अर्थात्-यहाँ तक धर्मास्तिकाय आदि प्रत्येक द्रव्य का स्वतन्त्र लक्षण तथा स्वरूप कहा। इससे यह सिद्ध हुआ कि धर्मास्तिकाय आदि पाँच द्रव्य सत् हैं--विद्यमान हैं। अब इन पाँचों द्रव्यों का सत् तरीके क्या एक ही लक्षण है ? अर्थात्-सत् किसे कहते हैं, वह बताते हैं ।। ५-२८ ।। * सतलक्षणः * ॐ मूलसूत्रम् उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्त सत् ॥५-२६ ॥ * सुबोधिका टीका * सतो लक्षणमुत्पादव्ययौ ध्रौव्यञ्च । अर्थात् यत्र त्रयाणां समवायः जायते तत् सत् । यदिह मनुष्यत्वादिना पर्यायेण व्ययतश्च प्रात्मनो देवत्वादिना पर्यायेणोत्पादः एकान्त ध्रौव्ये प्रात्मनि तत् तथैकस्वभावतयाऽवस्थाभेदानुपपत्तेः । अतः उत्पादव्ययध्रौव्येभ्यः युक्तः सत् ।
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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