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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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कारण हैं। उसमें सातावेदनीय कर्म का उदय अभ्यन्तर-अन्तरङ्ग कारण है तथा इष्ट भोजनादिक की प्राप्ति यह बाह्य कारण है। ये दोनों कारण पौद्गलिक रूप होने से सुख पुद्गल का उपकारकार्य है।
(२) दुःख- अनिष्ट भोजन तथा अनिष्ट वस्त्रादिक द्वारा उत्पन्न मानसिक संक्लेश असातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त होता है । असातावेदनीय कर्म के उदय रूप प्रान्तर कारण और अनिष्ट भोजनादिक की प्राप्ति रूप बाह्य कारण से मानसिक संक्लेश यानी दुःख होता है। ये दोनों कारण भी पौद्गलिक होने से दुःख पुद्गल का उपकार-कार्य है।
(३) जीवित- इस भवस्थिति में कारण आयुष्यकर्म के उदय से प्राण का टिका रहना. यही जीवित यानी जीवन है। यह जीवन आयुष्यकर्म, भोजन तथा प्राणापान (श्वासोच्छ्वास) इत्यादि प्राभ्यन्तर एवं बाह्य कारणों से चलता है। ये कारण पौद्गलिक होने से जीवित (जीवन) पुद्गल का उपकार-कार्य है।
(४) मरण (यानी मृत्यु)-यह वर्तमान जीवन का अन्त है एवं आयुष्यकर्म का भी क्षय है। मरण आयुष्यकर्म के क्षय तथा विषभक्षण आदि प्राभ्यन्तर और बाह्य पुद्गल की सहायता से होता है। इसलिए मरण (मृत्यु) पुद्गल का उपकार-कार्य है।
सबका सारांश यह है कि-भाषा, मन, प्राण और अपान ये सब व्याघात तथा अभिभव अर्थात् उत्पत्ति एवं विनाशवाले हैं। इसलिए शरीर के समान पौद्गलिक हैं। जीव-प्रात्मा की प्रीति ‘रति' रूप परिणाम ही सुख है। उसका आभ्यन्तर-अन्तरङ्ग कारण सातावेदनीयकर्म का उदय है और बाह्य कारण द्रव्य, क्षेत्रादिक से उत्पन्न होता है ।
इससे विपरीत अनिष्ट भाव दुःख है, किन्तु बाह्य कारण इसका भी द्रव्य क्षेत्रादि ही है ।
आयुष्यकर्म से युक्त देह-शरीरधारी जीवों का श्वासोच्छ्वास ही जीवन है। उसके उच्छेद को मरण कहते हैं। पूर्वोक्त सुख-दुःखादि पर्याय जीवों के उत्पन्न होते हैं परन्तु इनकी उत्पत्ति पुद्गल द्वारा होती है। इसलिए जीवों पर पुद्गल का उपकार माना गया है ।। ५-२० ।।
* जीवानां परस्परोपकारः *
卐 मूलसूत्रम्
परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ ५-२१ ।।
* सुबोधिका टीका * भविष्ये-वर्तमाने च यद् शक्यं युक्त न्याय्यं तत्-हितम् । विपरीतमहितम् । उपकारस्यार्थः हेतु अतएव अहितोपदेशः वा अहितानुष्ठानमपि उपकारेण व्यवह्रियते । परस्परस्य हिताहितोपदेशाभ्यां उपग्रहो जीवानाम् ।। ५-२१ ।।