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२८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।१६ तथा परिणमयति तांश्च कर्मतया। नोकर्मणः विषये प्रौदारिक-वैक्रियिकाहारककर्मणां प्राधान्यं वर्तते ।
एतानि त्रीणि शरीराणि पाहारवर्गणा एव रचयति ।। ५-१६ ।।
* सूत्रार्थ-शरीर, वचन, मन और प्राणापान-श्वासोच्छ्वास यह पुद्गलों का उपकार-कार्य है ।। ५-१६ ॥
विवेचनामृत , यहाँ जीव की अपेक्षा पुद्गलों का उपकार कहने में आया है। पुद्गलों का लक्षण तो "स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः" इस सूत्र में कहने में पायेगा।
(१) औदारिक आदि शरीर पांच हैं। शरीर का वर्णन दूसरे अध्याय के ३७वें सूत्र में आ गया है।
औदारिक आदि पांचों शरीर पुद्गल के परिणामरूप होने से पौद्गलिक हैं ।
(२) वाणी--यानी भाषा भी पौद्गलिक है। जब जीव बोलता है तब भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। पश्चाद् वे पुद्गल प्रयत्न विशेष से भाषा रूप में परिणमित होते हैं। बाद में वे पुद्गलों को प्रयत्नविशेष से छोड़ देते हैं।
इस तरह भाषा रूप में परिणमित पुद्गल ही 'शब्द' हैं। अर्थात्-भाषा रूप में परिणमित शब्दों को छोड़ने से-बोलने से इन पुद्गलों में 'ध्वनि' उत्पन्न होती है। वाणी (शब्द) भाषावर्गणा के पुद्गलों का परिणाम होने से पौद्गलिक द्रव्य है ।
कितनेक वाणी को गुण रूप में मानते हैं, किन्तु यह असत्य है। भाषा का यानी शब्द का ज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा होता है। भाषा भी रसनेन्द्रिय आदि की सहायता से उत्पन्न होती है तथा श्रोत्रेन्द्रिय की सहायता से उसे जान सकते हैं। उक्त कथन का सारांश यह है कि-शरीर, वचन, मन और प्राणापान यह पुद्गल द्रव्य का उपकार है।
औदारिक आदि शरीर पाँच प्रकार के हैं। पुद्गल स्कन्धों के सामान्यतया २२ भेद हैं । प्राणापान को नामकर्म के प्रकरण में बताया गया है।
द्वीन्द्रियादि जीव जिह्वा इन्द्रिय के द्वारा भाषारूप से पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। संज्ञी जीव हैं वे मनरूप से ग्रहण करते हैं। सकषायता के कारण जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण किया करता है ।। ५-१६ ॥