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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।१४
* सूत्रार्थ - धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का भवगाह सम्पूर्ण लोकाकाश
में है ।। ५-१३ ।।
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विवेचनामृत
धर्मास्तिकाय द्रव्य और अधर्मास्तिकाय द्रव्य का अवगाह सम्पूर्ण लोकाकाश में ही है । अवगाह की सम्भावना दो प्रकार से होती है । एक तो पुरुष के मन के समान और दूसरे दूध- पानी की तरह । इनमें दूध-पानी का सा अवगाह प्रकृत में वांछित है । यह कृत्स्न शब्द से व्यक्त होता है ।
जिस प्रकार जीव- श्रात्मा देह शरीर में व्याप्त रहता है, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय भी लोकाकाश में व्याप्त होकर अनादिकाल से हैं ।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं । लोकाकाश का एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है जहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय न हों ।
अतः धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश इन तीनों के प्रदेश समान ही हैं । जितने प्रदेश धर्मास्तिकाय के हैं, इतने ही प्रदेश अधर्मास्तिकाय के हैं । इतना ही नहीं किन्तु लोकश के भी उतने ही प्रदेश हैं ।
5 मूलसूत्रम्
एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ।। ५- १४ ॥
* सुबोधिका टीका *
प्रप्रदेशसंख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशानां पुद्गलानापुद्गलद्रव्यस्य चत्वारो भेदाः । कादिष्वाकाशप्रदेशेषु भाज्योऽवगाहः । भाज्य विभाज्य विकल्प्य इत्यनर्थान्तरम् । तद्यथा परमाणोरेकस्मिन्नेव प्रदेशे, द्वयणुकस्यैकस्मिन् द्वयोश्च । त्र्यणुकस्यैकस्मिन्द्वयोस्त्रिषु च एवं चरमाणुकादीनां संख्येयासंख्येय प्रदेशस्यैकादिषु संख्येयेषु असंख्येयेषु च, अनन्तप्रदेशस्य च ।
पुद्गलद्रव्ये यदणुद्रव्यं तस्यैकप्रदेशे किन्तु स्कन्धानां योग्यतानुसारं एकतरसंख्यातप्रदेशेषु श्रवगाहनं सम्भवति । नात्र शङ्का कार्या, परिणमनविशेषेणैतादृशंमपि सम्भवति । यथा शतकिलो प्रमाणकार्पासस्थाने शतायत् तनुषु अधिकप्रमारणी वस्तुनां लयः । धिकलोहप्रस्तरायतं सम्भवति । यथैककक्षे अनेकदीपप्रकाश: समायोजयितुं सम्भवं तथैव प्रकृतेऽपि ।। ५-१४ ।।
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* सूत्रार्थ - एक से लेकर प्रसंख्यात पर्यन्त जितने प्रदेशों के भेद सम्भव हैं तथा प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश तक जितने स्कन्धों के भेद सम्भव हैं, उनका यथायोग्य श्रवगाह होता है ।। ५-१४ ।।