________________
१६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।१२ * प्रश्न -- पुद्गल द्रव्य के लिए अनन्त पद की आवृत्ति पूर्वसूत्र से ले सकते हो, किन्तु
अनन्तानन्त पद की व्याख्या किस सूत्र के आधार पर है ? उत्तर---अनन्त पद सामान्य है। वह समस्त प्रकार के अनन्तों का बोध करा सकता है । इसलिए वर्तमान अध्याय के हवें सूत्र की अनुवृत्ति द्वारा उक्त अर्थ किया गया है ।। ५-११ ।।
* धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां आधारक्षेत्रः *
卐 मूलसूत्रम्
लोकाकाशेऽवगाहः ॥५-१२॥
* सुबोधिका टीका * प्रवेशकानां पुद्गलादीनामवगाहिनामवगाहो लोकाकाशे भवति अवगाह्यते इति अवगाहः । सर्वाणि द्रव्याणि लोकाकाशे वर्तन्ते । सादि, अनादिभेदाभ्याम् द्विविधम् तेषां प्रतिष्ठापनम् । सामान्यतः सर्वाणि द्रव्याणि अनादितः लोकाकाशे एव समाविष्टानि, किन्तु विशेषतः जोवपुद्गलानां अवगाहः सादीति उच्यते । यत् द्वेऽपि द्रव्ये सक्रिय क्रियाशीले, अनयोः क्षेत्राद् क्षेत्रान्तरं भवतः । अतएव एषां लोकाकाशाभ्यन्तरमेव क्वचिदपि अवगाहनं भवति । किन्तु धर्माधर्मद्रव्याणि नेदृशानि । तानि तु नित्यव्यापिनि अतः लोकेषु तेषामवगाहः सदैव तदवस्थं नित्यञ्च ।। ५-१२ ।।
* सूत्रार्थ-धर्मादि चारों द्रव्यों का अवगाह-प्रवेश लोकाकाश में ही है। जो अवगाही अर्थात् रहने वाले द्रव्य हैं, उनका अवगाह 'स्थिति स्थान' समस्त लोकाकाश है ।। ५-१२ ।।
ॐ विवेचनामृत प्रवेश करने वाले पुद्गल आदि का अवगाह लोकाकाश में ही होता है। अवगाह सम्पूर्ण लोक में सदा तदवस्थ रहता है, नित्य है।
आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश इस तरह दो भेद हैं। जितने प्रकाश में धर्मास्तिकायादि द्रव्य रहे हुए हैं उतना आकाश लोकाकाश है तथा शेष आकाश अलोकाकाश है । इस तरह लोकाकाश की व्याख्या से ही धर्मास्तिकायादिक द्रव्य लोकाकाश में रहे हुए हैं, यह सिद्ध होता है। लोकाकाश में अन्य-दूसरे द्रव्य को अवगाह-जगह देने का स्वभाव है। इससे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय लोकाकाश में ही रहे हुए होने से जीव और पुद्गल भी लोकाकाश में ही रहते हैं। क्योंकि, जीवों को तथा पुद्गलों को गति करने में धर्मास्तिकाय की और स्थिति करने में अधर्मास्तिकाय की सहायता लेनी पड़ती है। जहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय होते हैं, वहाँ ही जीव और पुद्गल गति-स्थिति कर सकते हैं ।