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पञ्चमोऽध्यायः
विवेचनामृत
धर्मादिक पाँच द्रव्यों में से एक पुद्गल द्रव्य ही ऐसा है जो रूपी है । रूपी शब्द से तात्पर्य है स्वरूप वाला । यह सम्बन्ध की अपेक्षा तथा अधिकरण की अपेक्षा दो प्रकार का होता है ।
पाँच द्रव्यों में मात्र पुद्गल द्रव्य ही रूपी है । चक्षु प्रादि इन्द्रियों द्वारा पुद्गल के गुणों का ही प्रत्यक्षज्ञान कर सकते हैं । अपने को चक्षु प्राँख द्वारा जो कुछ भी दिखाई देता है, वह पुद्गल ही है ।
जहाँ पर रूप होता है वहाँ रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुण भी अवश्य ही होते हैं । * श्राकाशपर्यन्तद्रव्याणां एकता
5 सूत्रम् -
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श्राssकाशादेकद्रव्याणि ।। ५-५ । * सुबोधिका टीका *
as धर्मादिकारिणद्रव्याणि तेषु धर्मादाकाशपर्यन्तं, धर्माधर्माकाशानि त्रीणि यानि द्रव्याणि तानि एकमेकमेव । शेषास्तु पुद्गलजीवाः अनेकद्रव्याणि । प्रकाशाद् धर्मादीन्येकद्रव्याणि एव भवन्ति ।
पुद्गलजीवास्तु भनेक
द्रव्याणि ।
सामान्यतः श्राकाशमखण्डमनन्तप्रदेशी वर्तते । लोकाकाशालोकाकाशे इति । असंख्य प्रदेशी
प्रदेशीति ।
विशेषापेक्षया द्वौ भेदौ लोकाकाशम्, श्रलोकाकाशानन्त
वस्तुतस्तूपचारेण एतौ द्वौ भेदौ । परन्तु श्राकाशन्तु प्रखण्डैकमेव द्रव्यम् । किन्तु नैव जीवपुद्गलेषु एवं यत् अनन्ताः जीवाः पुद्गलाः अपि अनन्तास्तथा प्रतिजीवपुद्गलसत्ताऽपि भिन्ना स्वतन्त्रा च ।। ५-५ ।।
* सूत्रार्थ - धर्म से श्राकाश पर्यन्त अर्थात् - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा श्राकाशास्तिकाय एक-एक द्रव्य है ।। ५-५ ।।
विवेचनामृत
विश्व में भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा जीव अनेक हैं । तथा भिन्न-भिन्न स्कन्ध आदि की अपेक्षा पुद्गल अनेक हैं । किन्तु घर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ए तीन द्रव्य एक-एक ही है ।