________________
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५॥४ संख्या की वृद्धि या हानि का अभाव समझना। धर्मास्तिकायादि पाँच द्रव्य नित्य रहते हैं। वे द्रव्य पाँच की संख्या को छोड़ते नहीं हैं। क्योंकि ये पाँच द्रव्य कम होकर कभी चार नहीं होते हैं, तथा बढ़कर छह भी नहीं होते हैं। अर्थात्-जितने हैं, इतने पाँच ही रहते हैं ।
* अरूपोपना-अरूपीपना यानी रूप का अभाव समझना। यहाँ अरूपीपना के उपलक्षण से रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्शादि गुणों का भी प्रभाव जानना। पुद्गल के अलावा चार द्रव्य अरूपी हैं। अर्थात्-रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि गुणों से रहित हैं ।
इसलिए इन चार द्रव्यों का चक्षु आदि इन्द्रियों से ज्ञान नहीं होता है। कर्मों के प्रावरण से रहित आत्मा ही इन चार द्रव्यों का प्रत्यक्ष ज्ञान कर सकता है।
सारांश यह है कि-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव-प्रात्मा ये पाँच द्रव्य नित्य हैं । अर्थात् –ये अपने-अपने सामान्य-विशेषत्व धर्म से कदापि च्युत नहीं होते हैं ।
"तभावाव्ययं नित्यम्" [अ. ५ सू. ३०] यह वही है, ऐसे प्रत्यभिज्ञान हेतुरूप भाव को नित्य कहते हैं। तथा उक्त पाँचों द्रव्य अवस्थित रूप हैं, वे अपनी पंचत्व संख्या से न्यूनाधिक नहीं होते हैं।
ये पाँचों द्रव्य अवस्थित हैं। किसी दिन भी पाँच की संख्या घटती नहीं। अर्थात्-ये पाँचों अनादिकाल से हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। इसलिए इनका कोई भी कर्ता नहीं है। क्योंकि ये कभी उत्पन्न हुए नहीं, तो फिर उनके उत्पादक की बात ही कहाँ रही ? ॥ ५-३ ॥
* रूपीद्रव्याणि * ॥ सूत्रम्
रूपिणः पुद्गलाः ॥५-४ ॥
* सुबोधिका टीका * धर्मादिकेषु पञ्चद्रव्येषु पुद्गल एवैकः रूपी। पुद्गला एव रूपिणो भवन्ति । रूपम्-एषाम् अस्ति एषु वा इति रूपिणः। रूपस्य व्युत्पत्तिः द्विविधा, सम्बन्धापेक्षयकान्यधिकरणापेक्षा ।
वैशेषिका मन्यन्ते यत् रूपादिरहितपुद्गलाः इति । यथा उत्पत्तिक्षणे द्रव्यं निर्गुणं निष्क्रियं च तिष्ठति एतद् । तेषां मते पृथिव्यां चत्वारः गुणाः, जले त्रयो गुणाः अग्नी द्वौ गुणौ वायौ च एकैव गुणः भवन्ति । किन्तु अस्य निराकरणं कृतं यत् न कोऽपि एतादृशः पुदृगलः यः रूपरसगन्धस्पर्शयुक्तो नैव । सर्वेषु चत्वारो गुणाः विद्यन्ते । अवनयमेव व्यक्तमव्यक्त क्वचित् ।। ५-४ ॥
* सूत्रार्थ-पुद्गल द्रव्य रूपी है, अर्थात् मूर्तिमान है ।। ५-४ ।।