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सिरोही जिले के जावाल के धरतीपुत्र जैनमुनि श्री जिनोत्तम विजयजी अब अपने आत्मकल्याण के साथ जन-जन का कल्याण करने के लिए अपने गुरु भगवन्त के साथ जैन साधुत्व के पंच महाव्रतों की पालना करते हुए डगर-डगर, गाँव-गाँव, ढाणी-ढाणी, नगर-नगर में पैदल विहार कर समाज में नैतिक जागरण का शंखनाद करते रहे । सदाचार और शिष्टाचार की महत्ता को जन-जन तक पहुँचाते रहे । जीओ और जीने दो की अलख जगाते रहे । सत्य, अहिंसा का प्रचार-प्रसार कर जन समुदाय को आपसी मंत्री भाव की माला में पिरोते रहे । जैन साधुत्व की दीक्षा लेने के अठारह वर्ष बाद इनके गुरु जैनाचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. ने इनकी परख कर राजस्थान की पावन धरा के सोजत सिटी में आपको वि. सं. 2046 मृगशीर्ष शुक्ला 6 को गरिणपद और वि. सं. 2046 की ज्येष्ठ शुक्ला 10 को इनकी जन्मभूमि जावाल में पंन्यास पद से विभूषित किया ।
पंन्यास श्री जिनोत्तम विजयजी जैनधर्म की गहराई में ज्ञान ध्यान के साथ सभी प्रकार के धार्मिक क्रिया-कलापों में अपने गुरु भगवन्त के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जैन शासन की अनुपम सेवा करने में कदापि पीछे नहीं रहे । जैन शासन सेवा के साथ राष्ट्रीय जन जागरण, मैत्री भावना से जन-जन को आपस में जोड़ने, मानव सेवा के कई रचनात्मक कार्य करने, साहित्य-कला-संस्कृति को उजागर करने वाले पंन्यास श्री जिनोत्तम विजयजी को वि. सं. 2053 मार्गशीर्ष वदी 2 को पाली जिले के कोसेलाव में उपाध्याय पदवी से अलंकृत करने पर इनकी धार्मिक, नैतिक, समाज-सेवा आदि क्षेत्रों में कार्य करने की अधिक जिम्मेदारी बढ़ गई।
उपाध्याय श्री जिनोत्तम विजय जी को जैनशासन, मानव समाज, जीव मात्र के प्रति इनकी लग्न, निष्ठा को देखकर हर व्यक्ति बड़ा प्रभावित हुआ । इनके सदाचार, शिष्टाचार, आत्मीय भाव मधुर व्यवहार, मिलनसारिता, शान्त स्वभाव, गम्भीर चिन्तन, उज्ज्वल भावनाओं के कारण जो कोई भी व्यक्ति इनके सम्पर्क में प्राया अथवा सत्संग में बैठा, निश्चित रूप से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा । इनके मार्गदर्शन, उपदेशों, पीयूषवारणी से प्रभावित होकर कई हिंसक व्यक्तियों ने अहिंसा का पथ अपना लिया । नशेड़ियों ने नशा करना छोड़ दिया । असामाजिक गतिविधियों में लिप्त इन्सान भी आपका सान्निध्य प्राप्त कर सब अनीतियों को छोड़ समाज की ओर अग्रसर हो गये। ऐसे प्रभावशाली एवं भाग्यशाली उपाध्याय योजो के प्राचार - विचारों से प्रभावित होकर जैन समाज ने वि. सं. 2054 वैशाख शुक्ल 6, सोमवार, 12 मई 1997 को पाली जिले के लाटाड़ा में आपको जैनाचार्य की पदवी से अलंकृत किया है। आपके धर्मगुरु जैनाचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी अपनी 81 वर्ष की वृद्धावस्था में आपको प्राचार्य पदवी देकर जैनशासन मानवधर्म, सेवा करने की बागडोर सशक्त हाथों में सौंपकर अपने आपको संतोषी मानने लगे हैं, जबकि धर्मावलम्बी एवं धर्मप्रेमी उपाध्याय श्री जिनोत्तम विजयजी को आचार्य पद पाने पर अपने आपको गौरवशाली एवं भाग्यशाली समझने लगे हैं ।