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________________ ॐ आत्महित-अष्टक 4 हे विश्वपूज्य ! सर्वज्ञदेव ! जिनेश्वर ! जगदीश्वर ! । वन्दन कर मैं करता विनती, भावयुक्त परमेश्वर ! ।। माया हूँ मैं तुम पास प्राशा, लेकर अति स्नेह से । वह प्रभो! परिपूर्ण करना, राव भी मेरी सुनके ॥ १॥ लख चौरासी योनि में मैं, अनादिकाल से फिर रहा । जन्म-मरणादि प्रवाह में, रात-दिन प्रति घूम रहा ।। उनमें ही पाया इस वक्त, मनुष्य-जन्म प्रति दुर्लभ । वह भी पूर्व पुण्य पसाय से, कर रहा हूँ अनुभव ।। २ ।। अद्यावधि मैंने सुदेव-गुरु-धर्म नहीं पहिचाना। अब क्या होगा मेरा प्रभो! तुम कृपा-करुणा बिना ।। रखड़ी रहा हूँ रंक पेरे, पाकर प्रति विडम्बना । संसार दावानल समा, अति दुःखयुक्त भरा हुआ ।। ३ ।। इस भव में न दिया दान मैंने, सुपात्र में भाव से । तथा शियल भी पाला नहीं, आत्म विटम्ब्या काम से ।। तप तपा नहीं मैंने प्रभो! किसी निजात्म निमित्त से । अब विशेष मैं क्या कहूँ, तुझ सर्वज्ञ के पास में ।। ४ ।। पूर्व विराधक भाव से ही, भाव मेरा नहीं विकसे । संयम को मलिन किया, कर्ममोहनीय वश से । पल-पल में अनेक बार, परिणाम की भिन्नता दीसे । किया जो कर्म मैंने अाज तक, छिपा नहीं है तुम से ॥ ५ ॥
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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