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मूलसूत्रकार- पूर्वघर महर्षि पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वाति जी महाराज हिन्दी पद्यानुवादक - शास्त्रविशारद - साहित्यरत्न - कविभूषण - पूज्याचार्य श्रीमद्विजय सुशील सूरीश्वर जी महाराज
5 मूलसूत्रम् -
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के छठे अध्याय का * हिन्दी पद्यानुवाद
* प्रात्रव की व्याख्या तथा भेद-प्रभेद
कायवाङ्मनः कर्मयोगः ॥ १ ॥
स प्रस्रवः ॥ २ ॥
शुभः पुण्यस्य ॥ ३॥
अशुभः पापस्य ॥ ४॥
सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ॥ ५ ॥
व्रत- कषायेन्द्रिय-क्रिया: पंच चतुः - पंच-पंचविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ६॥ तीव्रमन्द-ज्ञाताज्ञातभाव- वीर्य्याधिकरणविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ।। ७ ।।
* हिन्दी पद्यानुवाद
काय वचन मनथकी जो, कर्म वह योग ही कहूँ ।
वे ही प्रास्रव सूत्र पाठे, समझकर मैं सद्दहूँ || पुण्य के प्रास्रव जो हैं, उत्तम उनको वर्णव्या । पाप के प्रास्रव जो हैं, अशुभ उनको पाठव्या ॥ १ ॥ साम्परायिक प्रास्रव कहा, सकषायी योग के । ईर्यापथिक भी प्रास्रव कहा, प्रकषायी योग के ॥ साम्परायिक श्रास्रव के भी, उनचालीस प्रभेद हैं ।
तथा ईर्यापथिक प्रस्रव का
एक ही प्रभेद है ।। २ ।।
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