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६।२५ ] षष्ठोऽध्यायः
[ ४७ [२] प्रात्मप्रशंसा-अपनी बड़ाई करना। अर्थात्-स्व के विद्यमान अथवा अविद्यमान गुणों का स्वोत्कर्ष प्रगट करना, यह प्रात्मप्रशंसा है।
[३] सद्गुणाच्छादन- सद्गुणों को आच्छादित करना-ढकना। अर्थात्-पर के विद्यमान गुणों को ढकना, प्रसंगवशाद पर के गुणों को प्रकाश में लाने की जरूरत होते हुए भी ईर्ष्या इत्यादिक से प्रकाशित नहीं करना, वह सद्गुणाच्छावन है ।
[४] प्रसवगुणोद्भावन-अपने अविद्यमान गुणों को प्रगट करना। अर्थात्-अपने में गुण न होते हुए भी स्वोत्कर्ष साधने के लिए गुण हैं, ऐसा दिखावा करना, वह प्रसद्गुणोद्भावन है।
* तदुपरान्त-जाति आदि का मद, पर की अवज्ञा (तिरस्कार), पर की मसखरी, धार्मिकजन का उपहास, मिथ्याकीत्ति प्राप्त करनी, वडिलों का पराभव करना, इत्यादि भी नीच गोत्र कर्म के आस्रव हैं। अर्थात्-नीच गोत्र [नीच कुल] कर्म के बन्ध हेतु हैं ।। ६-२४ ।।
* उच्चगोत्रस्य प्रास्रवाः * ॐ मूलसूत्रम्तद्विपर्ययो नीचैवत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥ ६-२५ ॥
* सुबोधिका टीका * स्वनिन्दा, परगुणप्रशंसा, परासद्गुणाच्छादनं च स्वसद्भूतगुणगोपनं अन्यसद्भूतगुणप्रकटनं नययुक्तव्यवहारः गर्वराहित्यव्यवहारादि गुणाः उच्चैर्गोत्रकर्मणः बन्धकारणानि भवन्ति ।
उत्तरस्येति सूत्रक्रमप्रामाण्यादुच्चेर्गोत्रस्यास्रवा भवन्ति ।। ६-२५ ।।
* सूत्रार्थ-पूर्व सूत्र में बताये हुए भावों से विपरीत भाव अर्थात् प्रात्मनिन्दा, अन्य-दूसरे की प्रशंसा, अपने विद्यमान गुणों का प्राच्छादन, दूसरे के दुर्गुणों का आच्छादन तथा सद्गुणों का उद्भावन, नम्रतापूर्ण व्यवहार तथा गर्व रहित प्रवृत्ति उच्च गोत्रकर्म के प्रास्रव हैं ।। ६-२५ ।।।
+ विवेचनामृत) नीचगोत्र के उपर्युक्त कारणों से विपरीत कारण, अर्थात् स्वनिन्दा, परप्रशंसा, स्वसद्गुणाच्छादन और असद्गुणोद्भावन तथा नम्रवृत्ति एवं अनुत्सेक ; ये छह उच्च गोत्रकर्म के प्रास्रव हैं।
(१) स्वनिन्दा-अपने दोषों को प्रगट करना। (२) परप्रशंसा–पर के गुणों को प्रगट करना।