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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
15 विवेचनामृत 5
तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, प्रज्ञातभाव, वीर्य और अधिकरण भेद विशेष से "तत्" उपर्युक्त उनचालीस ( ३६ ) भेद सहित साम्परायिकास्रव के कर्मबन्ध में विशेषता होती है । अर्थात् - तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, वीर्य और अधिकरण भेद से ( परिणाम में भेद पड़ने से ) कर्म के बन्ध में भेद पड़ते हैं ।
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प्रारणातिपात, इन्द्रियव्यापार तथा सम्यक्त्वक्रिया आदि उपर्युक्त सूत्र ६ में बन्धकारण समान होते हुए भी तद्जन्य कर्मबन्ध में किन-किन कारणों से विशेषता होती है, उसी को प्रस्तुत सूत्र द्वारा कहते हैं । बाह्य बन्धकारण समान होते हुए भी परिणामों की तीव्रता, मन्दता के कारण कर्मबन्ध में भिन्नता होती है । जैसे- कोई एक चीज वस्तु को तीव्र तथा मन्द प्रासक्तिपूर्वक जोहने वाले का विषय तीव्र तथा मन्द होता है। वैसे ही परिणामों की तीव्रता से तीव्रबन्ध तथा मन्दता से मन्दबन्ध होता है ।
पुन:, इरादापूर्वक जो क्रिया की जाए उसको ज्ञातभाव कहते हैं । कोई भी क्रिया चाहे ज्ञातभाव से हो अथवा अज्ञात भाव से हो, किन्तु कर्म का बन्ध अवश्य ही होता है । तथा उसमें व्यापार हिंसादि प्रवृत्ति समान रूप होते हुए भी तद्जन्य कर्मबन्ध में न्यूनाधिकता होती है । अर्थात् - [- प्रज्ञातभाव से ज्ञातभाववाले का कर्म का बन्ध उत्कृष्ट होता है ।
जैसे - कोई धनुर्धारी व्यक्ति मृग- हरिण को हरिण जानकर बाण से मारता है, तथा दूसरा व्यक्ति निर्जीव पदार्थ पर निशाना मारते हुए भूल से मृग-हरिण को लग जाता है । इन दोनों में भूल से मारने वाले को जो कर्मबन्ध होता है, उससे जान बूझकर मारने वाले को कर्मबन्ध ज्यादा होता है ।
तीव्र-मन्द भाव तथा ज्ञात-अज्ञात भाव एवं वीर्य अधिकरण के सम्बन्ध में विशेष वर्णन करते हुए क्रमश: कहते हैं कि
* तीव्र-मन्द भाव - तीव्रभाव यानी अधिक परिणाम | तथा मन्द भाव यानी अल्पपरिणाम | जैसे – दोषित तथा निर्दोष व्यक्ति के प्रारण को विनाश करने में प्राणातिपातिकी क्रिया समान होते हुए भी दोषित व्यक्ति की हिंसा में हिंसा के परिणाम मन्द होते हैं तथा निर्दोष व्यक्ति की हिंसा में हिंसा के परिणाम अधिक तीव्र होते हैं ।
राजा की या अन्य किसी की आज्ञा से जीव की हिंसा करने में और अपने सांसारिक स्वार्थ के कारण जीव की हिंसा करने में क्रिया समान होते हुए भी हिंसा के परिणाम में अत्यन्त भेद होता है । कारण कि एक क्रिया में मन्द भाव होता है और दूसरी क्रिया में तीव्रभाव होता है इससे कर्मबन्ध में भेद पड़ता है ।
एक व्यक्ति प्रति उल्लासभावपूर्वक श्रीजिनेश्वर भगवान की वाणी सुनता है और अन्य दूसरा व्यक्ति प्रति मन्दभाव से जिनवाणी सुनता है ।
यहाँ पर जिनवाणी सुनने की क्रिया समान होते हुए भी परिणाम में भेद है । इसलिए पुण्य में भी भेद पड़ता है। अति उल्लासभावपूर्वक जिनवाणी सुनने वाले को अधिक पुण्य का बन्ध