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षष्ठोऽध्यायः
प्रवृत्ति अप्रशस्त है। श्रीवीतराग देव तथा गुरु आदि के दर्शन में चक्षुइन्द्रिय की प्रवृत्ति प्रशस्त है। अपना अपमान करने वाले के प्रति अहंकार आदि के वशीभूत होकर क्रोध करना यह अप्रशस्त क्रोध है। अविनीत शिष्यादिक को सन्मार्ग में लाने के शुभ इरादे से उसके प्रति क्रोध करना वह प्रशस्त क्रोध है।
इस तरह अन्य इन्द्रियों आदि में भी यथायोग्य प्रशस्त-अप्रशस्त को घटित करना। इस सम्बन्ध में संक्षेप में जो कहा जाए तो सर्वज्ञविभु श्रीजिनेश्वर देव की आज्ञा (जिनाज्ञा) के अनुसार होने वाली इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति प्रशस्त है, तथा श्रीजिनाज्ञा को उल्लंघन करके होने वाली इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति अप्रशस्त है ।। ६-६ ॥
* बन्ध-कारणसमाने सति कर्मबन्धे विशेषता *
मूलसूत्रम्तीव्र-मन्द-ज्ञाता-ऽज्ञातभाव-वीर्या-ऽधिकरणविशेषेभ्य
स्तद्विशेषः ॥६-७॥
* सुबोधिका टीका * सकषायजीवानामव्रतादिस्वरूपमनवचनकायाभिः या प्रवृत्तिः भवति नैषा सर्वेषु समाना। "द्वन्द्वादी द्वन्द्वान्ते च श्रूयमाणं पदं प्रत्येक परिसमाप्यते ।" तदनुसारं तोत्रादिभिः चतुभिः सह भावशब्दं योज्यम् ।
साम्परायिकास्रवाणामेषामेकोनचत्वारिंशत् साम्परायिकाणां तीव्रभावात् मन्दभावात् ज्ञातभावात् अज्ञातभावात् वीर्यविशेषात् अधिकरण विशेषात् च विशेषो भवति । लघुर्लघुतरोलघुतमस्तीवस्तीव्रतरस्तीव्रतम इति ।
तद् विशेषाच्च बन्धविशेषो भवति । क्रोधादिककषायोद्रेक परिणामाः तीव्रभावास्तद्विपरीताः मन्दभावाः ।
ज्ञानं, ज्ञात्वा च प्रवृत्तिकरणं ज्ञातभावं तद्विपरीतमज्ञातभावं भवति ॥ ६-७ ॥
___ * सूत्रार्थ-साम्परायिक कषाय के उक्त ३६ भेदों के भी तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, प्रज्ञातभाव और वीर्य तथा अधिकरण की विशेषता से विशेष भेद हुमा करते हैं ।। ६-७ ।।