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षष्ठोऽध्यायः
[ ११ पाँचवें सूत्रपाठ के अनुक्रम से पहले साम्परायिक प्रास्रव के भेद-प्रभेदों का इस सूत्र से वर्णन करते हैं। उस साम्परायिक कर्म प्रास्रव के मुख्य चार भेद तथा उत्तर उनचालीस (३६) भेद हैं, और तीन योगों को पूर्व सूत्र (एक) में कहकर आये हैं। कुल मिलाकर बयालीस (४२) भेद आस्रव के हैं।
(१) हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह ये पाँच अव्रत हैं। इनका वर्णन इस श्रीतत्त्वार्थाधिगम सूत्र के अध्याय ५ सूत्र ८ से १२ तक है ।
(२) क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। इनका विशेष वर्णन अध्याय ८ सूत्र १० में किया है।
(३) स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों का वर्णन अध्याय २ सूत्र २० में किया है।
इस सूत्र में इन्द्रियों का अर्थ रागद्वेष युक्त प्रवृत्ति है, बिना राग-द्वेष के आकार मात्र से ही कर्म का बन्धन नहीं होता है। सिर्फ राग-द्वेष की प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का कारण है।
(४) * पच्चीस क्रियाओं के नाम और लक्षण * (१) सम्यक्त्व क्रिया-सम्यक्त्व-समकित युक्त जीव-आत्मा की देव-गुरु सम्बन्धी नमस्कार, पूजा, स्तुति, सत्कार, सन्मान, दान, विनय, तथा वैयावच्च इत्यादि क्रिया। यह क्रिया सम्यक्त्व-समकित की पुष्टि तथा शुद्धि करती है। इस क्रिया से सातावेदनीय तथा देवगति इत्यादि पुण्यकर्म का प्रास्रव होता है, यह सम्यक्त्व क्रिया कही जाती है।
(२) मिथ्यात्व क्रिया-मिथ्यात्व मोहनीय प्रवर्द्धक सरागता अर्थात्-मिथ्यादृष्टि जीवमा की स्वमान्य देवगुरु सम्बन्धी नमस्कार, पूजा, स्तुति, सत्कार, सन्मान, दान, विनय तथा वैयावच्चादिक क्रिया। इस क्रिया से मिथ्यात्व की वृद्धि होती है, यह मिथ्यात्व क्रिया कही जाती है।
(३) प्रयोग क्रिया-शरीरादिक द्वारा उत्थानादि सकषाय प्रवृत्ति । अर्थात्-जीवआत्मा को अशुभ कर्म बन्ध हो जाय ऐसी मन, वचन और काया की क्रिया, यह प्रयोगक्रिया कही जाती है।
(४) समादान क्रिया-त्यागी हो करके भववृत्ति की ओर प्रवर्त्तमान होना। अर्थात्जिससे कर्मबन्ध हो जाय, संयमी याने साधु की ऐसी सावध क्रिया। यह समादान क्रिया कही जाती है।
(५) ईर्यापथिक-ईर्यापथ क्रिया-चलने की क्रिया। जिस क्रिया से दो ही समय की स्थिति का कर्मबन्ध होता है। सकषाय की चलने की क्रिया साम्परायिक कर्म का आस्रव बनती है तथा कषायरहित के चलने की क्रिया ईर्यापथ कर्म का आस्रव बनती है।