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षष्ठोऽध्यायः
प्रशस्त कषाय के सहयोग से होने वाला कर्मबन्ध शुभ होता है, तथा अप्रशस्त कषाय के सहयोग से होने वाला कर्मबन्ध अशुभ होता है। दोनों प्रकार के कर्मबन्ध भव-संसार के हेतु बनते हैं। किन्तु प्रशस्त कषाय के सहयोग से होने वाला शुभ कर्मबन्ध परिणाम में भव-संसार से मुक्त कराने वाला होता है।
ईर्या अर्थात् गमन । गमन के उपलक्षण से कषाय बिना की मन, वचन, और काया की प्रत्येक प्रवृत्ति जाननी। पथ-द्वारा, केवल कषाय रहित योग से होता हुआ आस्रव अर्थात् बन्ध ईर्यापथ है।
कषायरहित जीव-आत्मा में आस्रव अर्थात् कर्मबन्ध केवल योग से ही होता है। इसलिए वह ईर्यापथ प्रास्त्रव कहा जाता है। इस मानव से होने वाला बन्ध रसरहित होता है तथा उसकी स्थिति भी एक समय की होती है। ईर्यापथ में जो कर्म पहले समय में बंधाते हैं, दूसरे समय में रहते हुए भोगवाते हैं तथा तीसरे समय में तो वे जीव-आत्मा से पृथग्-विखूटे पड़ जाते हैं। जैसेशुष्क-चिकनाई रहित भीत पर पत्थर फेंकने में आ जाय तो भी वह पत्थर भींत के साथ चिपके बिना अथड़ा करके तत्काल नीचे गिर पड़ता है, वैसे ईर्यापथ में कर्म तत्काल एक ही समय में जीव-प्रात्मा से विखूटे पड़ जाते हैं।
सकषायपने से होने वाले साम्परायिक बन्ध में कर्म जीव-आत्मा के साथ चिकनाई वाली भींत पर रज जैसे चिपकती है वैसे चिपक जाते हैं, तथा दीर्घ-लम्बे काल तक स्थिति प्रमाणे रहते हैं। आबाघाकाल पूर्ण होते अपना फल देते हैं ।
__ इस सूत्र का सारांश यह है कि-जीव-आत्मा का पराभव करने वाले कर्म साम्परायिक कर्म कहलाते हैं। जैसे-चिकनाई के कारण देह-शरीर पर या घड़े पर पड़ी हुई रज चिपक जाती है, उसी तरह योग से आकृष्ट कर्म, कषायोदय के कारण जीव-आत्मा के साथ सम्बन्धित हो करके
। हैं, उसी को साम्परायिक कर्म कहते हैं, तथा बिना चिकनाई वाले घड़े पर रही हुई रज-धूल हिलाने से तत्काल गिर जाती है। इसी तरह कषाय के अभाव में केवल योगाकृष्ट कर्म जीव-आत्मा से तत्काल अलग हो जाते हैं। उसको ईर्यापथ कर्म कहते हैं। इसकी स्थिति केवल दो समय की मानी हुई है।
सकषाय जीव-प्रात्मा कायिकादि तीन प्रकार के योगों से शुभ या अशुभ कर्म बाँधते हैं। उसकी न्यूनाधिक स्थिति का अाधार कषाय की तीव्रता या मन्दता पर निर्भर है एवं यथासम्भव शुभाशुभ विपाक का कारण भी होता है। कषायमुक्तात्मा तीनों प्रकार के योगों से कर्म बाँधते हैं। वे कषायाभाव के कारण विपाकजन्य नहीं होते हैं। तथा उसका बन्ध काल दो समय से अधिक नहीं होता। इसको ईर्यापथिक कहने का कारण यह है कि, केवल ईर्या = गमनादिक योग प्रवृत्ति द्वारा ही कर्म का बन्ध होता है।
यद्यपि सभी जगह तीनों प्रकार के योगों की सामान्यता है, तो भी कषायजन्य न होने से उपार्जित कर्मों का स्थितिबन्ध नहीं होता है। अर्थात् -गमनागमनयोगप्रवृत्ति कर्म को ईर्यापथिककर्म कहते हैं। स्थिति तथा रस बन्ध का कारण कषाय है, और यही संसार की जड़ है ।