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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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प्रास्रव के भी पुण्य और पाप ऐसे दो भेद हैं। शुभ कर्मों का आस्रव पुण्य है, तथा अशुभ कर्मों का आस्रव पाप है। कौनसे कर्म पुण्य हैं ? और कौनसे कर्म पाप हैं ? यह वर्णन इस तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के आठवें अध्याय के अन्तिम सूत्र में पायेगा।
* अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, देव-गुरुभक्ति, दया, दान इत्यादि शुभ काययोग हैं । * सत्य और हितकर वाणी, देव-गुरु इत्यादिक की स्तुति, तथा गुण-गुणो की प्रशंसा
इत्यादि शुभ वचनयोग हैं। * अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, देव-गुरु की भक्ति, दया तथा दान इत्यादि के शुभ
विचार शुभ मनोयोग हैं।
प्रस्तुत सूत्र का यह विधान अपेक्षायुक्त समझना चाहिए। क्योंकि कषाय की मंदता के समय योग शभ हैं तथा उसकी तीव्रता में योग प्रशभ कहलाते हैं। जैसे-अशुभयोग के समय भी प्रथमादि गुणस्थानकों में ज्ञानावरणीयादि पाप तथा पुण्य प्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध होता है । उसी तरह छठे इत्यादि गुणस्थानकों में शुभ योग के समय भी पुण्य और पाप दोनों प्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध है।
प्रश्न-पुण्य बन्ध का शुभ योग और पाप बन्ध का अशुभ योग जो कारण कहा है, वह
असंगत है ? उत्तर-प्रस्तुत विधान में प्रधानता अनुभाग (रस) बंध की अपेक्षा समझनी चाहिए ।
शुभयोग की तीव्रता के समय पुण्य प्रकृति के अनुभाग की मात्रा अधिक होती है तथा पाप प्रकृति के अनुभाग की मात्रा न्यून-कम होती है। इसी तरह अशुभयोग की तीव्रता के समय पाप प्रकृति के अनुभाग की मात्रा अधिक होती है तथा पुण्य प्रकृति के अनुभाग की मात्रा कम-न्यून होती है। किन्तु दोनों पुण्य-पाप की प्रकृतियों का बन्ध प्रति समय होता ही रहता है। इसलिए सूत्रकार ने अधिकांश ग्रहण करके सूत्र का विधान किया है, किन्तु हीन मात्रा की विवक्षा नहीं की है। * विशेषप्रश्न-शुभ योग से निर्जरा भी होती है, तो यहां पर उसको केवल पुण्य के कारण तरीके
क्यों कहा है ? उत्तर-शुभ योग से पुण्य ही होता है, निर्जरा नहीं होती। कारण कि, निर्जरा तो शुभ आत्मपरिणाम से होती है। जितने अंश में शुभ आत्मपरिणाम होता है उतने अंश में निर्जरा होती है तथा जितने अंश में शुभयोग होता है उतने अंश में पुण्य का बन्ध होता है ।
* प्रश्न-शुभ योग के समय में ज्ञानावरणीयादि घाती कर्मों का भी प्रास्रव होता है।
घाती कर्म आत्मा के गुणों को रोकने वाले होने से अशुभ हैं। अतः शुभयोग से पुण्य का प्रास्रव होता है, ऐसा कहना उचित नहीं है ?