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षष्ठोऽध्यायः इस आस्रव का द्रव्य और भाव की दृष्टि से विचार करने में आये तो मन, वचन और काया ये तीन योग द्रव्य प्रास्रव हैं। जीव-प्रात्मा के शुभ-अशुभ अध्यवसाय भाव आस्रव हैं। द्रव्य अप्रधान-गौण है, और भाव प्रधान मुख्य है।
इस आस्रव में मुख्य कारण जीव-आत्मा के शुभ अथवा अशुभ अध्यवसाय हैं। क्योंकि, योग की अस्तिता होते हुए शुभ अथवा अशुभ अध्यवसाय जो न होवें तो कर्म का आस्रव होता नहीं है। जैसे कि तेरहवें गुणस्थानक में वर्तमान श्री केवली भगवन्त को काय इत्यादि योग होते हुए केवल साता वेदनीय कर्म का ही आस्रव होता है तथा आगे के दो सूत्रों में आयेगा कि शुभ योग पुण्य का कारण है और अशुभ योग पाप का कारण है। योग की शुभता और अशुभता जीव-आत्मा के अध्यवसायों के आधार पर होती है। शुभ अध्यवसाय से योग शुभ बनता है तथा अशुभ अध्यवसाय से योग अशुभ बनता है। इसलिए इस आस्रव में योग गौण कारण है तथा जीव-आत्मा के अध्यवसाय मुख्य कारण हैं ।। ६२ ।।
* योगाना भेदस्तथा कार्यम् *
ॐ मूलसूत्रम्
शुभः पुण्यस्य ॥ ६-३ ॥
* सुबोधिका टोका * ज्ञानावरणादिषु अष्टसु कर्मसु पुण्य-पापो द्वौ भेदौ। जीवाभीष्टकर्मफलपुण्यम्, जीवानिष्टफलपापमिति । शुभो योगः पुण्यस्यास्रवो भवति । कर्महेतुत्वात् प्रास्रवस्यापि द्वौ भेदौ । हिंसादिपापरहितप्रवृत्तिः, सत्यवचनं च शुभमनोयोगेन पुण्यकर्मबन्धो भवति । सातावेदनीय-नरकातिरिक्तत्रिभरायु-उच्चगोत्रञ्च शुभनामकर्म मनुष्यगति-देवगति-पञ्चेन्द्रिय-जात्यादि सप्तत्रिंशत् एवं द्विचत्वारिंशत् पुण्यप्रकृतयः भवन्ति ।। ६-३ ॥
* सूत्रार्थ-शुभ योग पुण्य का प्रास्रव है। अर्थात् शुभ योग पुण्यबन्धक हेतु है ॥ ६-३ ॥
5 विवेचनामृतक उक्त मन, वचन और काय ये तीनों योग शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। योगों के शुभत्व का और अशुभत्व का आधार भावना की शुभाशुभता पर निर्भर है। अर्थात् शुभ उद्देश्य की प्रवृत्ति शुभयोग है, तथा अशुभ उद्देश्य की प्रवृत्ति अशुभयोग है। किन्तु कर्मबन्ध की शुभाशुभता पर योग की शुभाशुभता अवलम्बित नहीं होती है। शुभयोग प्रवृत्तमान होते हुए भी अशुभज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध होता है। इसके लिए दूसरे और चौथे हिन्दी कर्मग्रन्थ में गुणस्थानक पर बन्ध विचारणीय है।