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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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योग शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । यहाँ पर योग शब्द श्रात्मवीर्य के अर्थ में है । वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमादिक से और पुद्गल के आलम्बन से प्रवर्तमान आत्मवीर्य - प्रात्मशक्ति । अर्थात् - वीर्यान्तराय के क्षयोपशम या क्षय से अथवा पुद्गलों के श्रालम्बन से श्रात्मप्रदेशों का परिस्पन्द अर्थात् रचना विशेष 'योग' कहलाता है ।
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संसारी प्रत्येक जीव आत्मा को वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमादिक से प्रगटी हुई आत्मशक्ति का उपयोग करने के लिए पुद्गल के श्रालम्बन की अवश्य जरूरत पड़ती है । जैसे- नदी आदि में रहे हुए जल-पानी का नहर आदि से उपयोग होता है, वैसे प्रत्येक संसारी जीव आत्मा में रही हुई शक्ति का उपयोग मन, वचन और काया के आलम्बन से होता है । अर्थात् - आलम्बन भेद से उसके मुख्य तीन भेद होते हैं । (१) काययोग, (२) वचनयोग, और ( ३ ) मनोयोग | जीवआत्मा में रही हुई शक्ति एक ही होते हुए भी उसका उपयोग करने में मन, वचन और काया ये तीन साधन होने से उसके तीन भेद हैं ।
(१) प्रदारिक आदि वर्गरणा योग्य पुद्गलों के आलम्बन से प्रवर्तमान होने वाले योगों को काययोग कहते हैं । अर्थात् -- काया के आलम्बन से होने वाला शक्ति का उपयोग काययोग है ।
(२) मतिज्ञानावरण तथा अक्षरश्रुतावरणादि कर्मों के क्षयोपशम से आन्तरिक (भाव) वाग्लब्ध उत्पन्न होते ही वचनवर्गरणा के श्रालम्बन से भाषा परिणाम की ओर अभिमुख आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन यानी प्रकम्प होता है, उसे वचनयोग कहते हैं । अर्थात् - वचन के प्रालम्बन से होने वाला शक्ति का उपयोग वचनयोग है ।
(३) नोइन्द्रियजन्य मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम रूप प्रान्तरिक लब्धि प्राप्त होते ही मनोवर्गरणा के आलम्बन से मनपरिणाम की ओर आत्मा का जो प्रदेश प्रकम्प होता है, उसे मनोयोग कहते हैं । अर्थात् - मन के आलम्बन से होने वाला शक्ति का उपयोग मनोयोग है ।
उक्त तीन प्रकार के योगों के कुल पन्द्रह (१५) भेद हैं । उनमें काययोग के सात, वचनयोग के चार तथा मनोयोग के चार भेद हैं ।
(३) वैक्रिय,
* काययोग के भेद - (१) श्रदारिक,
(२) दारिकमिश्र,
(४) वैक्रियमिश्र, (५) आहारक, (६) आहारकमिश्र और ( ७ ) कार्मण काययोग ।
दारिकाया द्वारा होने वाला शक्ति का जो उपयोग, वह 'श्रदारिक काययोग' है । इस तरह प्रदारिकमिश्र आदि में भी जानना । काया के औदारिक आदि सात भेद हैं, इसलिए काययोग के भी सात भेद समझना ।
दारिक, वैक्रिय, आहारक और कार्मरण इन चारों का अर्थ इस श्रीतत्त्वार्थाधिगम सूत्र के दूसरे अध्याय के ३७ वें सूत्र में कहा गया है ।
यद्यपि वहाँ पर पाँचों शरीरों का वर्णन है, तो भी यहाँ तैजसशरीर सदा कार्मणशरीर के साथ ही रहने वाला होने से कार्मरणकाय में तैजसशरीर का समावेश करने में आया है । इसलिए काययोग के भेद सात ही होते हैं ।