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________________ ४।२१ ] चतुर्थोऽध्यायः [ ४३ ब्रह्मलोकविषयेषु अपि एवमेव । यत् ब्रह्मलोकलान्तकलोकविमानकाः देवाः वालुकाप्रभापर्यन्तं, शुक्रसहस्राराः पङ्कप्रभापर्यन्तं, पानतप्राणतारणाच्युताः धूमप्रभापर्यन्तं, अधस्तु नव वेयका मध्यवेयका तमःप्रभापर्यन्तं, तथा चोपरिम वेयकाः महातमप्रभापर्यन्तं पश्यन्ति एव । * सूत्रार्थ-उपर्युक्त सौधर्म इत्यादिक कल्प तथा कल्पातीतों के देव अनुक्रम से पूर्व-पूर्व को अपेक्षा ऊपर-ऊपर के समस्त वैमानिक देव स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या, विशुद्धि, इन्द्रियविषय और अवधिविषय में अधिकाधिक हैं ।। ४-२१ ।। विवेचनामृत ॥ सौधर्मकल्प के देवों की अपेक्षा से ऊपर-ऊपर के देवों की स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या, विशुद्ध है तथा इन्द्रिय विषय और अवधि के विषय में अधिकाधिक हैं। अर्थात सौधर्मादिक नीचे के देवों की अपेक्षा ईशानादिक ऊपर-ऊपर के देव उक्त स्थित्यादि सात बातों में अधिक होते हैं। जैसे (१) स्थिति-यानी देवगति में रहने का काल । स्थिति के जघन्य और उत्कृष्ट भेदों का विस्तृत वर्णन स्वयं ग्रन्थकार इसी अध्याय के २६वें सूत्र से करेंगे। फिर भी यहाँ पर जो स्थिति का उल्लेख किया है, उसका कारण यह समझना चाहिए कि-- जिन उपरितन तथा अधस्तन विमानवर्ती देवों की स्थिति-काल समान है, उनमें भी जो ऊपर के विमानों में रहने वाले तथा उत्पन्न होने वाले हैं, वे अन्य गुणों में अधिक हैं या उनकी स्थिति अन्य गुणों की अपेक्षा से अधिक हुअा करती है। (२) प्रभाव-अचिन्त्य शक्ति को प्रभाव कहा जाता है। यह निग्रह, अनुग्रह, विग्रह और पराभियोग इत्यादिक स्वरूप में दिखाई देता है। उनमें-(१) शाप या दण्ड इत्यादिक देने की शक्ति को निग्रह कहते हैं। (२) परोपकार इत्यादि करने की शक्ति को अनुग्रह कहते हैं। (३) देह-शरीर को अनेक प्रकार के बना लेने की अणिमा तथा महिमा इत्यादि शक्तियों को इते हैं। (४) तथा जिसके बल-शक्ति पर जबरदस्ती करके अन्य-दसरे से कोई भी काम-कार्य करा लिया जा सके, उसको पराभियोग कहते हैं। यह निग्रहादि की शक्ति सौधर्मादिक देवों में जितने प्रमाण में पाई जाती है, उससे भी अनन्तगुणी शक्ति अपने से ऊपर के विमानवर्ती देवों में होती है। किन्तु वे देव अपनी उस शक्ति को उपयोग में नहीं लेते हैं। क्योंकि, वे मन्दमान-अभिमान वाले होते हैं और इनके संक्लेश परिणाम भी अति अल्प होते हैं। इसलिए उनकी निग्रहादिक करने में प्राय: प्रवृत्ति नहीं होती है। कदाचित् प्रवृत्ति हो जाय तो भी कम हुआ करती है।
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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