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४।२० ] चतुर्थोऽध्यायः
[ ४१ अपराजित नाम से प्रसिद्ध हैं। जो देव सम्पूर्ण अभ्युदयरूप प्रयोजन के विषयों में सिद्ध हो चुके हैं। या समस्त इष्ट विषयों के द्वारा जो सिद्ध हो चुके हैं; यद्वा जिनके समस्त अभ्युदयरूप प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं, उन देवों को सर्वार्थसिद्ध कहते हैं। उनके विमानों का नाम भी सर्वार्थसिद्ध प्रसिद्ध है। प्रश्न-चतुर्थ अध्याय के इस बीसवें सूत्र में जो समस्त शब्दों का एक ही समास न करके
भिन्न-भिन्न समास किये हैं, उसका क्या कारण है ? उत्तर-इस सूत्र में सबसे पहले सौधर्म शब्द से लेकर सहस्रार शब्द तक समास किया है। उसका कारण यही है कि सौधर्म देवलोक से लेकर सहस्रार देवलोक तक अर्थात् पहले देवलोक से पाठवें देवलोक पर्यन्त मनुष्य तथा तिर्यंच ये दोनों प्रकार के जीव उत्पन्न होते हैं। पश्चाद चार देवलोक में, नौ ग्रैवेयक में तथा पाँच अनुत्तर विमानों में केवल मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए यह भिन्नता-भेद बताने के लिए सौधर्म से सहस्रार तक के शब्दों का पृथक्-अलग समास किया है।
__ नौवें आनत और दसवें प्राणत इन दो कल्पों में समुदित एक ही इन्द्र है। तथा ग्यारहवें पारण और बारहवें अच्युत इन दो कल्पों में भी समुदित एक ही इन्द्र है। यह बात कहने के लिए प्रानत और प्राणत इन दो शब्दों का तथा प्रारण और अच्यूत इन दो शब्दों का भिन्न-भिन्न समास किया है। नौ अवेयक पर्यन्त उत्पन्न होने वाले जीव बहुल संसारी भी हो सकते हैं तथा अनुत्तर विजयादिविमानों में उत्पन्न होने वाले जीव अल्पसंसारी ही होते हैं। इस भिन्नता-भेद को बताने के लिए ग्रेवेयक शब्द का असमस्त अर्थात् समासरहित प्रयोग किया है ।
अनुत्तर विजयादि चार विमानों में उत्पन्न होने वाले जीव अल्प (संख्याता) भव करके मोक्ष में जाते हैं। पाँचवें सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होने वाले जीव एक भव में ही मोक्ष में जाते हैं। इस बात का स्पष्टीकरण-सूचन करने के लिए विजयादि चार शब्दों का समास किया है। तथा सर्वार्थसिद्ध शब्द का असमस्त अर्थात् समासरहित प्रयोग किया है।
* प्रश्न-बारह कल्प-देवलोक में पाँचवें कल्प-देवलोक का नाम ब्रह्म होते हए भी इस
सूत्र में ब्रह्मलोक इस तरह ब्रह्म के साथ लोक शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है ?
उत्तर-पांचवें ब्रह्मकल्प-देवलोक में लोकान्तिक देव रहते हैं। यह बताने के लिए ही ब्रह्म शब्द के साथ लोक शब्द का प्रयोग करने में आया है।
सारांश-पूर्व में वैमानिक निकाय के कल्पोपपन्न तथा कल्पातीत इस तरह मूख्य दो भेद कहे हैं। उसमें यहाँ पर कल्पोपपन्न के बारह भेदों के सौधर्मादिक बारह नाम प्रतिपादित किये हैं। तथा कल्पातीत के ग्रैवेयक एवं अनुत्तर ये दो भेद कहे हैं। उनमें ग्रैवेयक के नौ भेद हैं तथा अनुत्तर के पांच भेद हैं।
इस सूत्र में अनुत्तर के पाँच भेदों के क्रमशः विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध इस तरह नाम निर्दिष्ट किये हैं। नौ ग्रैवेयकों का सामान्य से नाम बिना निर्देश किया है।