SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ४११ * सूत्रार्थ-भवनवासी निकाय के देव असुरकुमार (१), नागकुमार (२), विद्युत्कुमार (३), सुवर्ण (सुपर्ण) कुमार (४), अग्निकुमार (५), वातकुमार (६), स्तनितकुमार (७), उदधिकुमार (८), द्वीपकुमार (8) तथा दिक्कुमार (१०), दस प्रकार के हैं ।। ४-११ ।। ... ॐ विवेचनामृत -- चार प्रकार के निकायों में से पहला निकाय भवनवासी देवों का है। इसलिए क्रमश: पहले इन्हीं का वर्णन करते हैं। दस प्रकार के भवनपति देवों के आवास-स्थान महामन्दर-सुदर्शन मेरुपर्वत के नीचे या तिरछे उत्तर दक्षिण दिशा में अनेक कोटाकोटि लक्ष योजन प्रमाण पर्यन्त हैं। असुरकुमार देव विशेष आवासों में तथा कभी-कभी भवनों में निवास करते हैं। शेष नागकुमारादिक नौ प्रकार के देवों का निवास प्रायः भवनों में ही होता है। आवास देवों के देहप्रमाण ऊँचे और समचौरस होते हैं। वे आवास चारों तरफ से खुले होने से महामण्डप जैसे लगते हैं। तथा भवन बाहर से गोल और अन्दर से चौकोर होते हैं। भवनों का तलिया पुष्पकणिका के आकार वाला होता है। इन भवनों का विस्तार जघन्य से जम्बूद्वीप प्रमाण, मध्यम से संख्याता योजनप्रमाण तथा उत्कृष्ट से असंख्याता योजन प्रमाण का होता है। ये भवन रत्नप्रभा नरक के पृथ्वी पिण्ड को एक हजार योजन ऊर्ध्व और अधो भाग में छोड़कर शेष एकलाखअठहत्तरहजार (१,७८,०००) योजन में होते हैं, तथा रत्नप्रभानरक के नीचे नगर के समान होते हैं, अतः उन्हें भवन कहते हैं। आवास तो विशेष रूप में सब जगह पाये जाते हैं, तथा वे मण्डप के आकार के होते हैं । पहला देवनिकाय भवनवासी है। उसके दस भेद हैं-(१) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) विद्युत्कुमार, (४) सुवर्ण (सुपर्ण) कुमार, (५) अग्निकुमार, (६) वातकुमार, (७) स्तनितकुमार, (८) उदधिकुमार, (६) द्वीपकुमार, तथा (१०) दिक् कुमार । * प्रश्न-किसलिये भवनपतिदेवों को कुमार तथा भवनपति कहते हैं ? उत्तर-वे भवनपति देव कुमारों के सदृश दिखने में आते हैं। मनोहर, सुकुमार, मृदु, मधुर ललितगति वाले और क्रीड़ाशील होते हैं; इसलिये कुमार कहे जाते हैं। भवनपति निकाय के महाभाग के देव भवनों में बसते हैं, इसलिये भवन के पति यानी भवनपति कहे जाते हैं।
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy