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________________ १६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ४।११ प्रवीचारगन्धरहिता ते कल्पातीतदेवाः प्रात्मसमुत्थोपम-सुखमनुभवन्ति । रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाः प्रवीचारहेतुकाः। तेभ्यः अपि अपरिमितगुणा प्रीतिविशेषप्रमोदात्मिका सुखिनः देवाः भवन्ति ।। ४-१० ।। * सूत्रार्थ-कल्पातीत देव प्रवीचार (मैथुनसेवन) से सर्वथा रहित हैं। अर्थात्बारहवें देवलोक से ऊपर के देवों में मैथुन सेवन का अभाव है ।। ४-१० ।। ॐ विवेचनामृत कल्पोपपन्न बारहवें अच्युत देवलोक के पश्चात्, कल्पातीत नौ ग्रैवेयक तथा विजयादि पाँच अनुत्तरवासी देव हैं। ये देव प्रवीचार से रहित माने गये हैं। अर्थात् इन्हें कामवासना नहीं होती, इसलिये ये उपरोक्त देवियों के स्पर्शादिक की अपेक्षा भी नहीं रखते हैं। वे अन्य देवों से अधिक संतुष्ट और सुखी होते हैं। पहले तथा दूसरे देवलोक की अपेक्षा यावत् बारहवें देवलोक के देव मन्द, मन्दतर, मन्दतम विषयवासना वाले होते हैं। अर्थात ऊपर-ऊपर के स्वर्गों के देवों के नीचे के स्वर्गों की अपेक्षा कामवासना मन्द होने से उनके चित्त में संक्लेश की मात्रा भी कम होती है। कामभोग के साधन भी कम होते हैं। बारहवें देवलोक से ऊपर के नौ ग्रैवेयक तथा पाँच अनुत्तरवासी देव शान्त और सन्तोषजन्य परम सुख में नित्य निमग्न रहते हैं। पांच प्रकार के प्रवीचार से उत्पन्न होने वाली प्रीतिविशेष से भी इनकी प्रीति के प्रकर्ष का महत्त्व अपरिमित है। इसलिए ये परमसुख के द्वारा सर्वदा तृप्त ही रहा करते हैं। अतएव ये जन्म से लेकर मृत्यु-मरण तक निरन्तर सुखी रहा करते हैं ।। (४-१०) * भवनपतिनिकायस्य देवानां दशभेदानां नामानि * 卐 मूलसूत्रम्भवनवासिनोऽसुर-नाग-विद्युत्-सुवर्णाग्नि-वात-स्तनितोदधि-द्वीप दिक्कुमाराः ॥ ४-११॥ * सुबोधिका टीका * भवनवासीति प्रथमनिकायः । एते च तस्य दश भेदाः । तद्यथा-असुरकुमाराः, नागकुमाराः, विद्युत्कुमाराः, सुवर्ण (सुपर्ण) कुमाराः, अग्निकुमाराः, वातकुमाराः, स्तनितकुमाराः, उदधिकुमाराः, द्वीपकुमाराः, दिक्कुमाराश्चेति । एते च कुमारवत् सुकुमाराः, रम्यदर्शनाः, मृदु-मधुर-ललितगतिवन्ताः, शृङ्गाराभिजातरूपविक्रियाः, कुमारवच्चोद्धतरूपवेषभाषाभूषणप्रहरणावरणयानवाहनाः कुमारवच्चोबल्णरागाः क्रीडापराश्चेत्यतः कुमारा इत्युच्यन्ते ।
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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