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चतुर्थोऽध्यायः
* व्यन्तर- ज्योतिष्कदेवेषु त्रायस्त्रश-लोकपालदेवयोः श्रभावः
मूलसूत्रम् -
त्रायस्त्रश - लोकपालवर्ज्या व्यन्तर-ज्योतिष्काः ॥ ४-५ ॥
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* सुबोधिका टीका
तत्र चतुर्निकायेषु व्यन्तराः ज्योतिष्क निकायेषु चाष्टविधाः देवाः भवन्ति । त्रायस्त्रिश-लोकपालवर्ज्या इति ।। ४-५ ॥
* सूत्रार्थ - व्यन्तर और ज्योतिष्क निकाय में त्रायस्त्रिश तथा लोकपाल नहीं होते हैं । अर्थात्-व्यन्तर तथा ज्योतिष्क देव त्रायस्त्रिश और लोकपाल रहित होते हैं ।। ४-५ ।।
5 विवेचनामृत 5
पूर्वसूत्र के भवनपति इत्यादि चारों जाति के अवान्तर प्रत्येक भेद के इन्द्र आदि दस भेद कहे हैं, किन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिश तथा लोकपाल का प्रभाव होने से ही इस सूत्र में इन दोनों का निषेध किया है। इससे व्यन्तर और ज्योतिष्क के अवान्तर प्रत्येक भेद के त्रायस्त्रिश तथा लोकपाल रहित इन्द्रादि प्राठ भेद हैं ।
5 मूलसूत्रम्
अर्थात् - इस सूत्र का सारांश यह है कि, आठ प्रकार के व्यन्तर तथा पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिश और लोकपाल रहित शेष इन्द्रादिक आठ भेद ही होते हैं ।। ४-५ ।। * भवनपति - व्यन्तरदेवयोः इन्द्रारणां सङ्ख्या
पूर्वयोर्द्वन्द्राः ॥ ४-६ ॥ * सुबोधिका टीका
चतुर्षु देवनिकायेषु पूर्वयोर्देवनिकाययोः भवनवासि - व्यन्तरयोः देवविकल्पानां द्वौ द्वाविन्द्रौ भवतः । तद्यथा - भवनवासिषु तावद् द्वो असुरकुमाराणां इन्द्रौ भवतः चमरो बलिश्च । नागकुमाराणां इन्द्रौ धरणो भूतानन्दश्च । विद्युत्कुमाराणां इन्द्र हरिः हरिहसा । सुपर्णकुमाराणां इन्द्रौ वेणुदेवो वेणुदारी च । श्रग्निकुमाराणां इन्द्रौ अग्निशिखः श्रग्निमारणवश्च । वायुकुमाराणां इन्द्रौ वेलम्बः प्रभञ्जनश्च । स्तनितकुमाराणां इन्द्रौ सुघोषः महाघोषश्च । उदधिकुमाराणां इन्द्रौ जलकान्तः