________________
15 श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र की महत्ता |
धमलामि
जैनागमरहस्यवेत्ता पूर्वधर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ने अपने संयम-जीवन के काल में पञ्चशत (५००) ग्रन्थों की अनुपम रचना की है। वर्तमान काल में इन पंचशत (५००) ग्रन्थों में से श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण, जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, क्षेत्रसमास, श्रावकप्रज्ञप्ति तथा पूजाप्रकरण इतने ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
पूर्वधर - वाचकप्रवरश्री की अनमोल ग्रन्थराशिरूप विशाल आकाशमण्डल में चन्द्रमा की भाँति सुशोभित ऐसा सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ यह श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र है। इसकी महत्ता इसके नाम से ही सुप्रसिद्ध है।
पूर्वधर - वाचकप्रवरश्रीउमास्वाति महाराज जैन आगम सिद्धान्तों के प्रखर विद्वान् और प्रकाण्ड ज्ञाता थे। इन्होंने अनेक शास्त्रों का अवगाहन कर के जीवाजीवादि तत्त्वों को लोकप्रिय बनाने के लिए अतिगहन और गम्भीर दृष्टि से नवनीत रूप में इसकी अति सुन्दर रचना की है। यह श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र संस्कृत भाषा का सूत्ररूप से रचित सबसे पहला अत्युत्तम, सर्वश्रेष्ठ महान ग्रन्थरत्न है।
यह ग्रन्थ ज्ञानी पुरुषों को, साधु-महात्माओं को, विद्वद्वर्ग को और मुमुक्षु जीवों को निर्मल आत्मप्रकाश के लिए दर्पण के सदश देडीप्यमान है और अहर्निश स्वाध्याय करने लायक तथा मनन करने योग्य है। पूर्व के महापुरुषों ने इस तत्त्वार्थसूत्र को- 'अर्हत् प्रवचनसंग्रह' रूप में भी जाना है।
ॐ [ पुरोवचन
पूर्वधर महर्षि श्रीउमास्वातिवाचक प्रणीत श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के इस चतुर्थ अध्याय में कुल सूत्रों की संख्या तिरेपन (५३) है।
जीव तत्त्व का निरूपण चल रहा है। उसमें तीसरे अध्याय में नारक, मनुष्य और तिर्यञ्च जीवों के आश्रय से प्रतिपादन किया गया है। अब इस चतुर्थ अध्याय में देवगति सम्बन्धी अनेक विषयों का प्रतिपादन करते हैं। ___ इस अध्याय में देवों के भेद, ज्योतिष्क देवों की लेश्या, भवनपति आदि प्रत्येक के अवान्तर भेद, व्यन्तर-ज्योतिषी देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल का अभाव, भवनपति तथा व्यन्तरनिकाय में इन्द्रों की संख्या, भवनपति और व्यन्तरनिकाय में इन्द्रों की संख्या, भवनपति और व्यन्तरनिकाय में लेश्या, देवों में मैथुन सेवन की विचारणा, ईशान देवलोक से परे मैथुनसेवन का अभाव, भवनपति निकाय के दश भेद व्यन्तरनिकाय के आठ भेद, तीसरे ज्योतिष्क निकाय के पाँच भेद, ज्योतिष्क विमानों के परिभ्रमण क्षेत्र, ज्योतिष्क गति से काल, मनुष्य लोक के बाहर ज्योतिष्क की स्थिरता, वैमानिक देवों के मुख्य दो भेद, वैमानिक निकाय के देवलोक का अवस्थान, वैमानिक भेदों के क्रमशः नाम, ऊपर-ऊपर स्थित आदिक की अधिकता, ऊपर-ऊपर गति आदिक की हीनता, देवों सम्बन्धी विशेष माहिती, वैमानिक निकाय में लेश्या, कल्प की अवधि, लोकान्ति देवों का स्थान, नव प्रकार के लोकान्तिक देव, अनुसरवासी विजयादि चार विमान के देवों का संसार-काल, तिर्यञ्च सज्ञावाले प्राणी, उनकी स्थिति, भवनपति निकाय में उत्तरार्ध के इन्द्रों की उत्कृष्ट स्थिति, भवनपति निकाय के
इन्द्रों की स्थिति में अपवाद, जघन्य स्थिति के अधिकार का प्रारम्भ, व्यन्तर देवों की उत्कृष्ट स्थिति, ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट स्थिति जिज्ञासुओं को इस चतुर्थ अध्याय से उपर्युक्त जानकारी होगी। तथा ज्योतिष्क देवों की जघन्य स्थिति का वर्णन है।