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250 Studies in Umāsvāti
माना गया है। प्रशमरतिप्रकरण में 'अनेकानुयोगनयप्रमाणमार्गैः समनुगम्यम् कारिकांश के द्वारा अनेक अनुयोग, नय एवं प्रमाण मार्ग से अधिगम करने के कथन से इसकी पुष्टि होती है । तत्त्वार्थसूत्र में ' प्रमाणनयैरधिगम : '48 सूत्र के द्वारा प्रमाण एवं नय से अधिगम सम्पन्न होने का कथन करके विभिन्न अनुयोगों का निर्देश इन तीनों सूत्रों में पृथक्रूपेण किया गया है।
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास : 19 – तत्त्वार्थसूत्र, 1.5
निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ।
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च । ̈ – तत्त्वार्थसूत्र, 1.7-8
तत्त्वार्थभाष्य में नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव को स्पष्टरूपेण अनुयोगद्वार कहा गया है— ' एभिर्नामादिभिश्चतुर्भिरनुयोगद्वारै: '151 इसी प्रकार निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान भी भाष्य के अनुसार अनुयोगद्वार है, 52 और सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व भी अनुयोगद्वार है 1 53 इस प्रकार अधिगम में नय एवं प्रमाण के साथ अनुयोगद्वारों का भी तत्त्वार्थसूत्र में महत्त्व स्वीकार किया गया है। नियुक्ति एवं षट्खण्डागम में भी इन अनुयोगद्व रों की चर्चा उपलब्ध होती है। अनुयोगों के माध्यम से किसी एक विषय का ज्ञान सम्यक् रीति से हो सकता है। प्रशमरतिप्रकरण की अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्र में अनुयोगद्वारों का कथन व्यवस्थित रूप में हुआ है। इससे प्रतीत होता हे कि तत्त्वार्थसूत्र प्रशमरतिप्रकरण के पश्चात् विरचित है।
यहाँ इस तथ्य पर भी विशेष ध्यान आकर्षित करना होगा कि नय एवं अनुयोग का प्रत्यय जैन दर्शन की अपनी मौलिक विशेषता है एवं चिन्तन के क्षेत्र में भारतीय दर्शन को उसका यह अमूल्य योगदान है। ज्ञानमीमांसा के सम्बन्ध में प्रमाण के अतिरिक्त नय एवं अनुयोग का भी अपना महत्त्व है।
(5) पंचविध ज्ञान
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय एवं केवल नामक पंचविध ज्ञानों का जितना सुव्यव स्थित निरूपण तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध होता है उतना प्रशमरतिप्रकरण में नहीं । प्रशमरतिप्रकरण में पाँच ज्ञानों के नाम उपलब्ध होते हैं, तथा उन्हें प्रत्यक्ष एवं परोक्ष में विभक्त किया गया है, 56 किन्तु इन ज्ञानों के भेदोपभेदों का कथन - विवेचन प्रशमरति में उपलब्ध नहीं है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय का अधिकांश ज्ञान के पाँच भेदों के भेदान्तर एवं उनके विवेचन पर ही केन्द्रित है। तत्त्वार्थसूत्र का प्रथम अध्याय जैन ज्ञानमीमांसा का संक्षेप में व्यवस्थित निरूपण करता है।