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उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण : एक अध्ययन 249 धर्म, अधर्म आदि चार अस्तिकायों के साथ क्यों नहीं किया गया? इस प्रश्न का समाधान करते हुए उन्होंने कहा कि उस सूत्र में काल का कथन करने पर काल में कायत्व स्वीकारना पड़ता है, जो कि काल में है नहीं। इसी प्रकार सूत्रों में परिगणित धर्म, अधर्म एवं आकाश के अतिरिक्त शेष द्रव्य पुद्गल एवं जीव सक्रिय हैं, अतः उनके साथ 'काल' भी सक्रिय हो जाता, जो अभीष्ट नहीं है । 42 उपर्युक्त दोनों बिन्दुओं से यह सिद्ध होता है कि उमास्वाति को काल पृथक् द्रव्य के रूप में अभीष्ट था।
(ग) पं. दलसुख मालवणिया का इस सम्बन्ध में भिन्न मत है। वे लिखते हैं कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों के मत में लोक पंचास्तिकायमय है। उत्तरा - ध्ययनसूत्र के अतिरिक्त लोक को षड्द्रव्यात्मक नहीं बताया गया है। 44 मालवणिया जी का यह कथन इस बात की ओर संकेत करता है कि उस समय पाँच द्रव्य मानने की भी परम्परा रही है तथा उमास्वाति काल को पृथक् द्रव्य मानने के पक्षपाती नहीं थे। पं. मालवणिया जी के इस कथन पर प्रश्न तब उठता है जब व्याख्याप्रज्ञप्ति एवं अनुयोगद्वारसूत्र में स्पष्टतः षड्द्रव्यों का उल्लेख प्राप्त होता है 45 तथा उमास्वाति ने स्वयं प्रशमरतिप्रकरण में 'काल' को अजीव पदार्थों में परिगणित किया है। इससे उमास्वाति का अपना मत सन्दिग्ध हो जाता है। प्रशमरतिप्रकरण में उन्होंने पुद्गल को रूपी तथा धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल को अरूपी द्रव्य कहा है, यथा
धर्माधर्माकाशानि पुद्गला काल एव चाजीवाः ।
पुद्गलवर्जमरूपं तु रूपिणः पुद्गलाः प्रोक्ताः ।। 46
प्रशमरतिप्रकरण, 207
इसका तात्पर्य है कि उमास्वाति को काल पृथक् द्रव्य के रूप में अभीष्ट था, किन्तु वे इसके सम्बन्ध में रहे मतभेद को प्रकट करना चाहते थे ।
( 3 ) बन्धहेतु
तत्त्वार्थसूत्र में कर्म - -बन्धन के पाँच हेतु गिनाए गए हैं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । प्रशमरतिप्रकरण में राग-द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद एवं योग को कर्मबन्ध का हेतु बताया गया है।
आगम में मिथ्यात्व आदि को आस्रव का हेतु तथा राग-द्वेष को बन्ध का कारण बताया गया है।
( 4 ) नय, प्रमाण और अनुयोग
जैन ज्ञान-मीमांसा में अधिगम के लिए नय, प्रमाण एवं अनुयोग को सहायक