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248 Studies in Umāsvāti (इ) जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं।
संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हंवति अट्ठा।।” – पंचास्तिकाय, 108 (उ) णव य पदत्था जीवाजीवा ताणं च पुण्णपावदुगं। आसवसंवरणिज्जरबंधा मोक्खो य होंति ति।।38
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा, 621 इन सब आगमिक उद्धरणों में भी नव तत्त्वों या पदार्थों का कथन किया गया है, अतः उमास्वाति द्वारा पुण्य-पाप तत्त्व का तत्त्वार्थसूत्र में पृथक् कथन न करना जैन परम्परा में विवाद को जन्म देता है। (2) काल द्रव्य उमास्वाति ने प्रशमरतिप्रकरण में धर्म, अधर्म आकाश एवं पुद्गल के अतिरिक्त काल को भी अजीव द्रव्यों में स्थान दिया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में उन्होंने काल को कतिपय आचार्यों के मत में द्रव्य निरूपित किया है। इससे यह विवाद का विषय बनता है कि उमास्वाति के मत में काल एक पृथक् द्रव्य है या नहीं? इस सम्बन्ध में निम्नाङ्कित बिन्दु विचारणीय हैं___(क) तत्त्वार्थसूत्र में धर्म, अधर्म, आकाश एवं पुद्गल को उमास्वाति ने अजीवकाय कहा है। यहां अजीव के साथ काय शब्द उनके अस्तिकाय होने का सूचक है। 'काल' अजीव है, किन्तु वह अस्तिकाय नहीं है, क्योंकि उसके कोई प्रदेश-समूह नहीं हैं, इसलिए इसे चार अजीवकायों के साथ उमास्वाति ने नहीं गिनाया है। जीव अस्तिकाय है, किन्तु अजीव नहीं है, इसलिए उसे भी यहाँ नहीं गिनाकर उसके लिए पृथक् सूत्र दिया गया है। फिर उमास्वाति ने इन पाँचों द्रव्यों की समानता-असमानता के आधार पर उनका वर्णन किया है।
(ख) 'काल' का पृथक् द्रव्य के रूप में उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय के 38वें सूत्र 'कालश्चेत्येके' के द्वारा किया गया है। किन्तु इसके पूर्व इसी अध्याय के 22वें सूत्र में उन्होंने 'वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' सूत्र के द्वारा काल का लक्षण और उसके कार्य बताए हैं, जिससे सिद्ध होता है कि काल उन्हें पहले ही एक द्रव्य के रूप में अभीष्ट था। ऐसी स्थिति में सूत्र की उपयोगिता नहीं रह जाती है।
सम्भवतः यही कारण है कि सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओं में यह सूत्र 'कालश्च' रूप में ही पढ़ा गया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने 'काल' के पृथक् कथन का औचित्य प्रतिपादित किया है। उन्होंने प्रश्न उठाया कि काल का कथन