________________
उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण : एक अध्ययन 247 पुण्णासवभूदा अणुकंपा सुद्धओ अ उपजोओ। विवरीओ पावस्स हु आसवहेउं वियाणाहि।।' – कसायपाहुड
यहाँ ज्ञात होता है कि पुण्यास्रव एवं पापास्रव एक दूसरे के विपरीत हैं, अतः दोनों का पृथक् कथन आवश्यक है।
(vi) पुण्य-पाप का समावेश आस्रव एवं बन्ध तत्त्व में करने का परिणाम यह हुआ कि पुण्य को भी पाप की ही भाँति मुक्ति में बाधक मानकर आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा पाप को लोहे की बेड़ी तथा पुण्य को सोने की बेड़ी कहा गया, जो उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। क्योंकि जो पुण्य केवलज्ञान की प्राप्ति में बाधक न होकर साधक है, उसे सोने की बेड़ी कहना पाप की श्रेणि में डाल देना है। हाँ, यह अवश्य है कि यह अघाती पुण्य कर्म शरीर रहने तक रहता है, शरीर छूटने के साथ वह वैसे ही स्वतः समाप्त हो जाता है, जिस प्रकार कि यथाख्यात चारित्र स्वतः छूट जाता है। इसलिए पुण्य को पापकर्म के समकक्ष नहीं रखा जा सकता।
(vii) यदि पाप एवं पुण्य को एक ही श्रेणी में रखकर समान रूप से त्याज्य प्रतिपादित किया जायेगा तो साधना का मार्ग ही नहीं रह सकेगा; क्योंकि पूर्णतः अयोगी अवस्था तो चौदहवें गुणस्थान में होती है। उसके पूर्व जो मन, वचन एवं काय योग रहता है वह या तो कषाय के आधिक्य के कारण अशुभ होता है या कषाय के घटने के कारण शुभ होता है। अशुभ से शुभ की ओर बढ़ने पर ही साधना सम्भव है। अत: पुण्य को पाप कर्म की भाँति एकान्ततः त्याज्य कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता।
ये कतिपय बिन्दु हमें चिन्तन करने के लिए विवश करते हैं कि उमास्वाति ने पुण्य एवं पाप को तत्त्व-संख्या में स्थान न देकर जैनदर्शन के साथ कितना न्याय किया है? सप्त तत्त्व के प्रतिपादन की उनकी मौलिक सूझ कहीं जैन दर्शन के तत्त्वज्ञान में भ्रान्ति उत्पन्न करने में निमित्त तो नहीं बन गई? विद्वानों को इस पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आगम-परम्परा एवं कर्मसिद्धान्त के अनुसार तो नवतत्त्व या नव-पदार्थ को स्वीकार करना ही उचित प्रतीत होता है। --- पुष्ट्यर्थ उद्धरण(अ) नवसब्भावपयत्था पण्णत्ता तंजहा-जीवा अजीवा पुण्णं पावो, आसवो संवरो णिज्जरा बंधो मोक्खो। –स्थानांगसूत्र, नवमस्थान (आ) जीवाजीवा य बंधो य, पुण्णं पावासवो तहा।
संवरो निज्जरा मोक्खो, संते ए तहिया नव।। - उत्तराध्ययनसूत्र, 28.14