________________
230 Studies in Umāsvāti प्रणेता वाचक उमास्वाति को ही प्रशमरति-प्रकरण का कर्ता स्वीकार किया गया है, यथा- 'श्री उमास्वातिवाचकः पञ्चशतप्रकरणप्रणेता प्रशमरतिप्रकरणं प्ररूपयन्नादौ मंगलमाह।'– इस कथन से भी प्रशमरतिप्रकरण वाचक उमास्वाति की ही कृति सिद्ध होती है। टीकाकार हरिभद्र ने प्रशमरतिप्रकरण के कर्ता के लिए 'वाचक. मुख्य' शब्द का प्रयोग किया है- 'तस्मै वाचकमुख्याय नमो भूतार्थभाषिणे' जो उमास्वाति का ही संसूचन करता है। अभी तक ऐसा कोई लेख देखने में नहीं आया जिसमें प्रशमरतिप्रकरण के उमास्वातिकृत होने का खण्डन किया गया हो। अतः इसका उमास्वातिकृत होना निर्विवाद है। इस सन्दर्भ में यह कहना उपयुक्त होगा कि प्रशमरति एवं तत्त्वार्थसूत्र की आन्तरिक विषयवस्तु एवं प्रयुक्त शब्दावली में जो साम्य एवं एकरूपत्व प्राप्त होता है उससे तत्त्वार्थसूत्र एवं प्रशमरति के एक कर्तृत्व की सिद्धि को बल मिलता है। इन दोनों ग्रन्थों में कितना साम्य है, इसकी चर्चा आगे की जायेगी।
प्रशमरतिप्रकरण की अभी दो टीकाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें एक टीका आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित है। ये हरिभद्र 'षड्दर्शनसमुच्चय' आदि के रचयिता आठवीं शती के प्रसिद्ध हरिभद्रसरि (700-770 ई.) से पृथक् हैं। टीका के अन्त में प्राप्त प्रशस्ति के अनुसार यह टीका अणहिलपाटक नगर में हरिभद्राचार्य के द्वारा जयसिंहदेव के राज्य में विक्रम संवत् 1185 (ई. 1128) में रची गई थी (श्री हरिभद्राचार्यैः रचितं प्रशमरतिप्रकरणं किञ्चित्। अणहिलपाटकनगरे श्रीमज्जय- सिंहदेवनृपराज्ये। बाणवसुरुद्रसंख्ये विक्रमतो वत्सरे व्रजति।)। टीका अपने आप में सुस्पष्ट, संक्षिप्त, सरल तथा आगमानुसारिणी है। प्रशस्ति में इन हरिभद्र के पूर्व अनेक टीकाएँ हुईं, ऐसा संकेत मिलता है। (परिभाव्य वृद्धटीकाः सुखबोधार्थं समासेन)।
दूसरी टीका अवचूरि के रूप में है, जिसका कर्ता अज्ञात है। किन्तु अवचूरि के अन्त में प्रदत्त 'धनमिव जयमनुभवति' वाक्यांश से ऐसा प्रतीत होता है कि इस अवचूरि के कर्ता धनञ्जय (धनम् जय) हैं। ये धनञ्जय कौन से हैं, इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। अवचूरि में यथावश्यक शब्दों का व्याख्यान किया गया है।
अब विचार यह करना है कि प्रशमरति प्रकरण की रचना वाचक उमास्वाति ने किस उद्देश्य से की। ग्रन्थकार ने इसका उद्देश्य प्रशमरति में स्थैर्य स्थापित करना बताया है-'प्रशमरतिस्थैर्यार्थं वक्ष्ये जिनशासनात् किञ्चित्।" वाचक उमास्वाति के इस कथन से ग्रन्थ के अनुबन्ध का तो बोध होता ही है, किन्तु इसके साथ ही दो अन्य तथ्य भी स्पष्ट होते हैं -