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उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण : एक अध्ययन 231 1. इस ग्रन्थ का आधार जिनशासन अर्थात् जिनोपदिष्ट आगम वचन हैं। यह
कोई काल्पनिक कृति नहीं है। 2. प्रशम अर्थात् वैराग्य के प्रति रुचि में उमास्वाति को उस समय शिथिलता
दृष्टिगोचर हुई होगी।
अतः उसके प्रति साधु-साध्वियों एवं जनमानस को दृढ़ बनाने के लिए उमास्वाति ने यह ग्रन्थ रचा होगा। इन दोनों तथ्यों में से प्रथम के द्वारा इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता सिद्ध होती है तथा दूसरे तथ्य के द्वारा ग्रन्थ की उपयोगिता विदित होती है। ग्रन्थ का नाम 'प्रशमरति' है। 'प्रशम' का अर्थ टीकाकार हरिभद्र ने राग-द्वेष से रहित होना अथवा वैराग्य किया है। रति का अर्थ उन्होंने शक्ति अथवा प्रीति किया है (तत्र वैराग्यलक्षणे प्रशमे रतिः शक्तिः प्रीतिः तस्यां स्थैर्य निश्चलता)।
इस ग्रन्थ में उमास्वाति ने वैराग्य या कषाय-विजय रूप प्रशम के प्रति रुचि उत्पन्न करने एवं उस रुचि को निश्चल बनाने का प्रयास किया है। वैराग्य के पर्यायवचनों में उमास्वाति ने माध्यस्थ्य, विरागता, शान्ति, उपशम, प्रशम, दोषक्षय
और कषायविजय की गणना की है (माध्यस्थ्यं वैराग्यं विरागता शान्तिरुपशमः प्रशमः। दोषक्षयः कषायविजयश्च वैराग्यपर्यायाः।' – जो वैराग्य या प्रशम के विभिन्न रूपों को प्रकट करते हैं। टीकाकार हरिभद्र ने तो मंगलाचरण में प्रशमरति को वैराग्य पद्धति का ही ग्रन्थ बताया है। प्रशम या वैराग्य रूप एक विषय पर ही केन्द्रित होने के कारण यह प्रकरण ग्रन्थ की कोटि में आता है (शास्त्रैकदेशसम्बद्धं शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम्। आहुः प्रकरणं नाम ग्रन्थभेदं विपश्चितः।।)।
ग्रन्थ में बाईस अधिकार एवं 313 कारिकाएँ हैं। बाईस अधिकार इस प्रकार
1. पीठबन्ध, 2. कषाय, 3. रागादि, 4. अष्टकर्म, 5. पंचेन्द्रिय विषय, 6. अष्टमद, 7. आचार, 8. भावना, 9. धर्म, 10. धर्मकथा, 11. जीवादि नव तत्त्व, 12. उपयोग, 13. भाव, 14. षड्द्रव्य, 15. चारित्र, 16. शीलाङ्ग, 17. ध्यान, 18. क्षपक श्रेणी, 19. समुद्घात, 20. योगनिरोध, 21. मोक्षगमन-विधान, 22. अनन्त फल। ग्रन्थ की विस्तृत विषयवस्तु का आपाततः बोध इन अधिकारों के नामों से ही हो जाता है। किन्तु प्रसङ्गतः इनमें निर्ग्रन्थ-स्वरूप, लोकस्वरूप, आत्मा के आठ प्रकार, मोहनीय कर्म के उन्मूलन की प्रक्रिया, गृहस्थचर्या आदि विषयों का भी निरूपण हुआ है।