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उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण : एक अध्ययन
धर्मचन्द जैन
संस्कृत की 313 कारिकाओं में निबद्ध प्रशमरतिप्रकरण जैन अध्यात्मविद्या का उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इसमें कषाय-कलुषित जीव के निर्मल एवं मुक्त होने का मार्ग सम्यक् रीति से निरूपित है। प्रशमरतिप्रकरण निर्विवाद रूप से तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता वाचक उमास्वाति की रचना मानी जाती है। पं. सुखलाल संघवी तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना में प्रशमरति को उमास्वाति की कृति मानने में सन्देह का अवकाश नहीं मानते।' पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने भी जैन साहित्य का इतिहास लिखते हुए प्रशमरति को उमास्वाति की ही कृति माना है। डॉ. मोहनलाल मेहता एवं प्रो. हीरालाल कापड़िया ने भी वाचक उमास्वाति को ही प्रशमरति का रचयिता स्वीकार किया है।
इस प्रकार श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों जैन परम्पराएँ एकमत से तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता वाचक उमास्वाति को ही प्रशमरतिप्रकरण का कर्ता अङ्गीकार करती हैं, किन्तु इस मन्तव्य की पुष्टि में पं. सुखलाल संघवी के अतिरिक्त किसी ने कोई प्रमाण उपस्थापित नहीं किया है। पं. सुखलाल संघवी ने उल्लेख किया है कि हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थभाष्य टीका में "यथोक्तमनेनैव सूरिणा प्रकरणान्तरे" वाक्य लिखकर प्रशमरतिप्रकरण की 210वीं एवं 211वीं कारिकाएं उद्धृत की हैं। इससे तत्त्वार्थभाष्यकार एवं प्रशमरतिकार के एक ही होने की पुष्टि होती है।
प्रशमरतिप्रकरण वाचक उमास्वाति की ही रचना है, इस सम्बन्ध में एक अन्य प्रमाण अज्ञातकर्तृक अवचूरि में प्राप्त होता है, जिसमें पाँच सौ प्रकरणों के