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तत्त्वार्थसूत्र का व्याख्या साहित्य 213 प्रणिधानं विशुद्धमध्यवसानं, तस्य विशेषः परोपदेशानपेक्षत्वं तदपेक्षत्वं च, तस्मादुत्था यस्य तत्प्रणिधानविशेषोत्थ। ...... प्रणिधानविशेषोत्थं द्वैविध्यमस्येति प्रणिधान- विशेषोत्थद्वैविध्यं, तच्चात्मनोरूपं -अर्थात् प्रणिधान, उपयोग, विशुद्ध अध्यवसान-ये एकार्थवाची हैं। प्रणिधान विशेष यानी परोपदेश अपेक्षा वा परोपदेश की अपेक्षा बिना उत्पत्ति है जिसकी, उसको प्रणिधान विशेष से उत्पन्न कहते हैं। ... प्रणिधान विशेष से उत्पन्न निसर्गज और अधिगमज भाव आत्मा का स्वरूप है।
वार्तिक एवं भाष्य इन उदाहरणों से ही हम इस ग्रंथ की प्रतिपादन शैली समझ सकते हैं। वस्तुतः आचार्य विद्यानंद ने इस ग्रंथ के माध्यम से प्रशस्त तर्कवितर्क व विचारणा के द्वारा सिद्धान्त समन्वित तत्त्वों की प्रतिष्ठापना की है।
तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक इन दोनों ग्रंथों की महत्ता प्रतिपादित करते हुए पं० सुखलाल जी संघवी ने लिखा है – राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक के इतिहासज्ञ अभ्यासी को मालूम पड़ेगा कि दक्षिण हिन्दुस्तान में जो दार्शनिक विधा और स्पर्धा का समय आया और अनेकमुख पाण्डित्य विकसित हुआ, उसी का प्रतिबिम्ब इन दोनों ग्रंथों में है। प्रस्तुत दोनों वार्तिक जैनदर्शन का प्रामाणिक अभ्यास करने में पर्याप्त साधन हैं। इनमें राजवार्तिक का गद्य सरल और विस्तृत होने से तत्त्वार्थ के सम्पूर्ण टीकाग्रंथों की गरज अकेला ही पूर्ण करता है। ये दो वार्तिक नहीं होते तो दसवीं शताब्दी तक के दिगम्बर साहित्य में जो विशिष्टता आयी और उसकी जो प्रतिष्ठा बंधी, वह निश्चय से अधूरी ही रहती।
पं० संघवी जी जैसे मर्मज्ञ मनीषी का उक्त कथन दोनों वार्तिकों के तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। वे अपने द्वारा सम्पादित
और विवेचित तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तावना (पृ. 66-7) में इसी संबंध में आगे लिखते हैं -
_ 'यदि आचार्य अकलंकदेव को सर्वार्थसिद्धि न मिली होती तो उनके राजवार्तिक का वर्तमान स्वरूप इतना विशिष्ट नहीं होता और यदि राजवार्तिक का आश्रय न मिला होता तो आचार्य विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक की विशिष्टता भी दिखाई न देती। इस तरह राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक-ये दोनों साक्षात् या परम्परा से सर्वार्थसिद्धि के ऋणी होने पर भी दोनों में सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा विशेष विकास हुआ है। सर्वार्थसिद्धि में जो दार्शनिक अभ्यास दिखाई देता है, उसकी अपेक्षा राजवार्तिक का दार्शनिक अभ्यास बहुत ही ऊँचा चढ़ जाता है।
पं० संघवी जी आगे लिखते हैं, 'राजवार्तिक का एक ध्रुव मन्त्र यह है कि उन्हें जिस बात पर जो कुछ कहना होता है, उसे वे अनेकान्त का आश्रय