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212 Studies in Umāsvāti
तत्त्वार्थवार्तिक पर पं० सदासुखदास, जयपुर के शिष्य पं० पन्नालाल जी संघी, (दूनीवालों की) वि. सं. 1820 में लिखी भाषा वचनिका मिलती है। सन् 1915 में पं० गजाधरलाल के सम्पादकत्व में सनातन जैन ग्रंथमाला, बनारस से तत्त्वार्थवार्तिक (मूल संस्कृत) प्रकाशित हुआ था। पं० गजाधरलाल ने इसका विस्तृत हिन्दी अनुवाद भी किया था। बाद में इन्हीं के अनुवाद को पं. मक्खनलाल जी न्यायालंकार, मुरैना ने संशोधन एवं परिवर्धन के साथ भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता से हरीभाई देवकरण ग्रंथमाला के क्रमांक 8वें पुष्प के रूप में सन् 1928 ई. में प्रकाशित किया। इस टीका के विशालकाय होने तथा वार्तिक के साथ टीका नहीं होने से स्वाध्यायियों को कठिनाई का सामना करना पड़ता था। अतः पं० महेन्द्रकुमार जी ने अनेक शास्त्र भंडारों से प्राप्त मूल प्रतियों के आधार पर मूल ग्रंथ का प्रामाणिक सम्पादन कर मूल के साथ अलग से हिन्दी सार लिखकर भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कर इसे लोकप्रिय बनाया। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
नवीं शती के युग प्रभावक आचार्य विद्यानन्द द्वारा लिखित आप्तपरीक्षा, सत्यशासन. परीक्षा, अष्टसहस्री, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा आदि ग्रंथों में तत्त्वार्थ- श्लोकवार्तिक का विषय प्रमेय सिद्धान्त होने पर भी उनकी यह वृत्ति जैन न्याय शास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। तत्त्वार्थ- श्लोकवार्तिक के तत्त्वार्थवार्तिकालंकार, तत्त्वार्थश्लोक-वार्तिकभाष्य, श्लोकवार्तिकभाष्य एवं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- व्याख्यान - ये नाम भी प्रसिद्ध हैं। यह ग्रन्थ प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल भट्ट के मीमांसाश्लोकवार्तिक एवं धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक की तरह पद्यशैली में लिखा गया है। साथ ही पद्यवार्तिकों पर गद्यात्मकभाष्य भी आचार्य विद्यानंद ने स्वयं लिखा है। इस तरह अनुपम गद्य-पद्यात्मक उभय चम्पू शैली में लिखा गया यह विशिष्ट महनीय ग्रंथ है।
उदाहरणार्थ प्रथमाध्याय के सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: इस प्रथम सूत्र के आरम्भ में वे सम्यग्दर्शन की परिभाषा करते हुए यह पद्यमय वार्तिक प्रस्तुत करते हैं- प्रणिधानविशेषोत्थद्वैविध्यं रूपमात्मनः ।
यथास्थितार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनमुद्दिशेत्।।1।।
अर्थात् प्रणिधान (स्वच्छ चित्त की एकाग्रता के ) विशेष से उत्पन्न द्वैविध्य रूप आत्मा के स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
इस पद्यमय वार्तिक का गद्यमय भाष्य करते हुए वे लिखते हैं