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तत्त्वार्थसूत्र का व्याख्या साहित्य 211 तत्त्वार्थवार्तिक का तत्त्वार्थसूत्र की विशेष व्याख्या होने के कारण अध्यायों में तो विभक्त होना स्वाभाविक है साथ ही यह आह्निक और वार्तिक में भी विभक्त है। इसका अध्ययन करते समय दार्शनिक मन्तव्यों की विवेचना के प्रसंग में अकलंकदेव ‘अनेकान्तात्' इस पद का अनेक स्थलों पर उल्लेख करते हैं। इस माध्यम से वे वहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि इस मन्तव्य का समाधान हम अनेकान्त पद्धति से करेंगे। इस प्रकार वे इस पद्धति से आगमिक आधार पर स्पष्ट समाधान के साथ अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा भी करते चलते हैं।
__ वस्तुतः आचार्य अकलंकदेव षड्दर्शनों के मर्मज्ञ थे। उनकी कृतियों में प्रसंगानुसार विशिष्ट दर्शनों के मतों को उनके मूल ग्रंथों के आधार से प्रस्तुत किया गया है, न कि प्रचलित अवधारणाओं के आधार पर। अकलंकदेव ने भी तत्त्वार्थवार्तिक में शब्दों की सिद्धि पूज्यपाद कृत 'जैनेन्द्र व्याकरण' के सूत्रोल्लेख पूर्वक की है।
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित प्रो. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य द्वारा सम्पादित एवं सारभूत अनूदित तत्त्वार्थवार्तिक के प्रधान सम्पादकीय वक्तव्य में सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचंद्र जी शास्त्री का यह वक्तव्य बिलकुल सटीक है कि तत्त्वार्थसूत्र
और तत्त्वार्थवार्तिक – इन दोनों का विषय समान है, किन्तु अकलंकदेव तो प्रखर दार्शनिक थे, अतः प्रथम और पंचम अध्याय उनकी दार्शनिक समीक्षा और मन्तव्यों से ओत-प्रोत हैं। प्रथम सूत्र की व्याख्या में ही नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और बौद्धदर्शन के मोक्ष और संसार के कारणों की समीक्षा की है। जहाँ भी दार्शनिक चर्चा का प्रसंग आया है, वहाँ अकलंकदेव की तार्किक सरणि के दर्शन होते हैं।
इस तरह यह सैद्धान्तिक ग्रंथ दर्शनशास्त्र का एक अपूर्व ग्रंथ बन गया है। जैन सिद्धान्त के जिज्ञासु भी इस एक ही ग्रंथ के स्वाध्याय से अनेक शास्त्रों का रहस्य-हृदयंगम कर सकते हैं। उन्हें इसमें ऐसी भी चर्चायें मिलेंगी, जो अन्यत्र नहीं हैं।
जैसा कि पहले भी कहा गया है कि अकलंकदेव अनेकान्तवाद के महापण्डित ही थे। इसी से प्रायः सूत्रस्थ विवादों का निराकरण अनेकान्त के आधार पर किया गया है। इतना ही नहीं प्रथम अध्याय के प्रमाणनयैरधिगमः सूत्र की व्याख्या में सप्तभंगी और चतुर्थ अध्याय के अन्तर्गत अनेकान्तवाद का बहुत विस्तार से विवेचन है।