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210 Studies in Umāsvāti वे परवर्ती आचार्यों के लिए दीपक के समान सिद्ध हुईं और इन आचार्यों ने इनके आधार पर अपने-अपने टीका ग्रंथों में इनका पर्याप्त विकास किया। इस प्रकार पूज्यपाद ने तत्त्वार्थसूत्र में आये सभी शब्दों और विषयों का सयुक्तिक स्पष्टीकरण तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों का हार्द इस प्रकार प्रस्तुत किया मानो वे उमास्वामी के हृदय में प्रविष्ट हो इन सूत्रों का विस्तार लिख रहे हों। . - __वस्तुतः शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। आचार्य उमास्वामी शब्दों का जो भी अर्थ बतलाना चाहते थे ऐसा लगता है कि पूज्यपाद विचारपूर्वक वही कह रहे हैं। इस प्रकार यह टीका एक दीपस्तम्भ की तरह है। यही कारण है कि अनेक परवर्ती दार्शनिक, सैद्धान्तिक, पौराणिक आदि चारों अनुयोगों के ग्रंथ प्रायः किसी न किसी रूप में सर्वार्थसिद्धि से उपकृत दिखलाई देते हैं। तत्त्वार्थवार्तिक सर्वार्थसिद्धि के बाद यदि तत्त्वार्थसूत्र पर प्रौढ़ रचना शैली में कोई विस्तृत टीका लिखी गयी है तो वह है सातवीं सदी के आचार्य अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थवार्तिक।
जैनेतर दार्शनिक परम्पराओं में जब प्रमाणवार्तिक जैसे वार्तिक ग्रंथ सामने आये, तब जैनाचार्य कैसे पीछे रहते फलतः आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक जैसा उत्कृष्ट ग्रंथ वार्तिक विधा में लिखकर जैनेतर ग्रंथकारों को चुनौती दी। विशेषता यह है कि बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति का प्रमाणवार्तिक पद्य में लिखा गया, जबकि आचार्य अकलंकदेव ने इस वार्तिक ग्रंथ को प्रौढ़ गद्यविधा में लिखकर जैन दार्शनिक साहित्य के विकास में महनीय योगदान दिया है।
पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि इस तत्त्वार्थवार्तिक का मूल आधार मात्र ही नहीं अपितु अकलंकदेव ने इसमें सर्वार्थसिद्धि को इस तरह समाहित कर लिया है, जिस तरह वृक्ष में बीज समाविष्ट हो जाता है। विशेषता यह कि तत्त्वार्थवार्तिक का स्वाध्याय करने वाले को यह प्रतीत ही नहीं होता कि प्रकारान्तर से वह सर्वार्थसिद्धि का भी स्वाध्याय कर ले रहा है। वस्तुतः सर्वार्थसिद्धि में अपनी सीमा के कारण जिन दार्शनिक विषयों के विवेचन को स्थान नहीं मिल सका था, आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में उन विषयों की खुलकर विवेचना प्रस्तुत की है। सर्वार्थसिद्धि की वाक्यरचना सूत्रशैली सदृश है। इसीलिए आ० अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में उनके प्रमुख-प्रमुख वाक्यों को भी वार्तिक बनाकर प्रस्तुत किया। साथ ही आवश्यकतानुसार नये-नये वार्तिकों की भी रचना करते गये।