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तत्त्वार्थसूत्र का व्याख्या साहित्य 209 श्वेताम्बर टीकाकारों तक ने नि:संकोच यथायोग्य उपयोग करके अपने-अपने टीका ग्रंथों को गौरवपूर्ण एवं प्रामाणिक बनाया। सर्वार्थसिद्धि की प्रसन्नशैली और विषयस्पर्शी है। हम इस टीका की भाव-भाषा और विषय-प्रतिपादन की सूक्ष्म पद्धति की शैली को समतल नदी के गतिशील प्रवाह की उपमा दे सकते हैं, जो स्थिर एवं प्रशान्त भाव से एक रूप में सदा आगे बढ़ती ही रहती है, रुकने का नाम ही नहीं लेती।
आ० पूज्यपाद स्वयं में एक सहज और उत्कृष्ट वैयाकरण हैं, उनकी इस विशेषज्ञता का ज्ञान पाठक को सहज ही इसका स्वाध्याय करते समय होता रहता है। यही कारण है कि उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रपदों का आश्रय लेकर पदघटना के साथ ही प्रत्येक पद का इस प्रकार विवेचन किया है कि व्याकरण जैसे कठिन और जटिल विषयों का ज्ञान सरल, सहज और सरलता से समझने में आने लगता है।
इस तरह पूज्यपाद ने न केवल भाषा-सौष्ठव का ही ध्यान रखा, अपितु जैनधर्म-दर्शन के सैद्धान्तिक विषय-विवेचन में आगमिक एवं पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों के प्रमाणों को प्रस्तुत करने की परम्परा का पूरा ध्यान रखा है। यथावसर उन्होंने आगम शास्त्रों के उद्धरण भी दिये हैं।
प्रत्येक सूत्र की विवेचना करते समय उन्होंने पूर्वापर सम्बन्ध, तत्सम्बन्धी पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष के रूप में प्रश्नों का निर्देश और उनका सटीक समाधान इस तरह प्रस्तुत किया है कि उसके बाद कुछ कहने को रह नहीं जाता।
प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या प्रस्तुत करने के पूर्व उत्थानिका में किसी निकट-भव्य द्वारा वन के मध्य आश्रम में मुनि परिषद् के मध्य विशाल संघ के साथ स्थित निर्ग्रन्थाचार्य से आत्महित सम्बन्धी प्रश्न पूछने आदि का जो सजीव चित्रण किया है, वह अपने आप में अद्भुत् मनोवैज्ञानिक और असाधारण है। इस प्रश्न के समाधान से ही आत्मा का हित मोक्ष, इसका स्वरूप और इसकी प्राप्ति का उपाय बताने से ही 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यह प्रथम सूत्र प्रस्फुटित हुआ।
पूज्यपाद ने अपने व्याकरण विषयक विशेषज्ञता का परिचय सम्पूर्ण ग्रंथ में बड़ी ही सहजता और सरलता से दिया है। इसीलिए वे शब्दों की सटीक व्युत्पत्तियाँ एवं परिभाषायें प्रस्तुत करने के अवसर कहीं चूके नहीं। वे तो इन सबके श्रेष्ठ शिल्पी हैं। इसमें इन्होंने विषयों और तत्सम्बद्ध शब्दों की जो परिभाषायें स्थिर की,