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214 Studies in Umāsvāti लेकर ही कहते हैं। अनेकान्त राजवार्तिक की प्रत्येक चर्चा की चाबी है। अपने समय तक भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के विद्वानों ने अनेकान्त पर जो आक्षेप किए और अनेकान्तवाद की जो त्रुटियाँ बतलाई, उन सबका निरसन (खण्डन) करने और अनेकान्त का वास्तविक स्वरूप बतलाने के लिए ही अकलंक ने प्रतिष्ठित तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर सिद्ध लक्षण वाली सर्वार्थसिद्धि का आश्रय लेकर अपने राजवार्तिक की भव्य इमारत खड़ी की है। सर्वार्थसिद्धि में जो आगमिक विषयों का अति विस्तार है, उसे राजवार्तिककार ने कम कर दिया है और दार्शनिक विषयों को ही प्राधान्य दिया है।'
पं० संघवी जी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के विषय में स्वविवेचित तत्त्वार्थसूत्र की इसी प्रस्तावना में आगे लिखते हैं, 'दक्षिण भारत में निवास करते हुए आचार्य विद्यानन्द ने देखा कि पूर्वकालीन और समकालीन अनेक जैनेतर विद्वानों ने जैनदर्शन पर जो आक्रमण किए हैं, उनका उत्तर देना बहुत कुछ शेष है और विशेषकर मीमांसक कुमारिल भट्ट आदि द्वारा किये गए जैनदर्शन के खण्डन का उत्तर दिये बिना उनसे रहा नहीं गया, तभी उन्होंने श्लोकवार्तिक की रचना की और उन्होंने अपना यह उद्देश्य सिद्ध किया है।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में मीमांसा दर्शन का जितना और जैसा सबल खण्डन है, वैसा तत्त्वार्थसूत्र की किसी अन्य टीका में नहीं है। सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक में चर्चित कोई भी मुख्य विषय तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककार ने छोड़ा नहीं है। बल्कि बहुत से स्थानों पर तो सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक की अपेक्षा श्लोकवार्तिक की चर्चा बढ़ जाती है। कितनी ही बातों की चर्चा तो श्लोकवार्तिक में अपूर्व ही है।
राजवार्तिक में दार्शनिक अभ्यास की विशालता है तो श्लोकवार्तिक में इस विशालता के साथ सूक्ष्मता का तत्त्व भरा हुआ दृष्टिगोचर होता है। समग्र जैन वाङ्मय में जो कृतियाँ बहुत महत्त्व रखती हैं उनमें राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक भी हैं। आगे तो पं. संघवी जी एक चुनौती देते हुए लिखते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध श्वेताम्बर साहित्य में एक भी ग्रंथ ऐसा नहीं है, जो राजवार्तिक या श्लोकवार्तिक की तुलना में बैठ सके। ये दोनों वार्तिक ग्रंथ अनेक दृष्टियों से भारतीय दार्शनिक साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं। इनका अवलोकन बौद्ध एवं वैदिक परम्परा के अनेक विषयों पर तथा अनेक ग्रंथों पर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है।