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काल का स्वरूप
67. तत्त्वार्थभाष्य, 5.40 68. पंचास्तिकायसंग्रह तात्पर्य वृत्ति, 25 एवं द्रव्यसंग्रहटीका, 22 (असंख्यात कोटाकोटि योजन
का एक रज्जु होता है।) 69. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5.39 70. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5.39 पर वृत्ति 71. अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना। अतोऽस्ति च
ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इति अस्तिकायः।- अभयदेवसूरि, श्री स्थानाङगसूत्रम् (अभयदेवसूरिकृत टीका युक्त) सम्पादक-मुनिजम्बूविजय, श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् 2003, भाग 2 पृष्ठ 330, श्री अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग 1, पृष्ठ 513
पर भी उद्धृत 72. अस्तिशब्देन प्रदेशप्रदेशाः क्वचिदुच्यन्ते ततश्च तेषां वा कायाः अस्तिकायाः।- श्री
स्थानाङग्सूत्रम् (अभयदेवसूरिटीका), पृ. 330 तथा श्री अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग 1,
पृष्ठ 513 73. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक 2, उद्देशक 10, सूत्र 7-8 74. द्विविधः कालः परमार्थकालः व्यवहारकालश्चेति। - तत्त्वार्थवार्तिक, 5.22 75. (1) स्थानांगसूत्र, तीन स्थान, चतुर्थ उद्देशक, कालसूत्र ___(2) षट्खण्डागम, जीवस्थान 1.5.1 76. षट्खण्डागम, जीवस्थान, 1.5.1 77. (1) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2030-31,(2)- लोकप्रकाश, 28.93-94 78. सूर्यादिक्रियया व्यक्तीकृतो नृक्षेत्रगोचरः।
गोदोहादिक्रियानियंपेक्षोऽद्धाकाल उच्यते ।। - लोकप्रकाश, 28.105 79. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2038 तथा लोकप्रकाश, 28.110 80. लोकप्रकाश, 28.192 81. स्थानङ्गटीका, गणितानुयोग,आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद, पृ. 692 पर उद्धृत 82. (1) पुद्गल परावर्तनविचार, 24 पन्ने, लेखक का उल्लेख नहीं
(2) पुद्गल परावर्तन, 1 पन्ना 83. प्रज्ञापनासूत्र, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.), समुद्घातपद 84. उपर्युक्त पाण्डुलिपियाँ, पंचकर्मग्रन्थ, गाथा 86-88, लोकप्रकाश, सर्ग 35 एवं
प्रवचनसारोद्धार, द्वार 162, गाथा 1043-1050