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________________ जैन-बौद्ध वाङ्मय में वर्णाश्रमधर्म और संस्कार भारतीय परम्परा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ये चार वर्ण प्रचलित रहे हैं। इन वर्गों की चर्चा जैन ग्रन्थों में भी प्राप्त होती है। धीरे-धीरे गुण एवं कर्म पर आधारित ये वर्ण जन्म से गृहीत होने लगे, अतः इन्होंने जाति का रूप ले लिया। जैन एवं बौद्ध धर्मों ने इस जाति प्रथा का विरोध किया तथा सबके लिए धर्म का द्वार खोल दिया। वैदिक परम्परा में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास इन चार आश्रमों का निरूपण हुआ है, तथा इनका क्रम भी निर्धारित है, किन्तु जैन एवं बौद्ध धर्म में ब्रह्मचर्याश्रम में रहते हुए सीधे प्रव्रज्या अंगीकार कर संन्यासाश्रम में पहुँचा जा सकता है। वैदिक परम्परा में गर्भ से लेकर अन्त्येष्टि तक 16 संस्कार स्वीकृत हैं, किन्तु जैन एवं बौद्ध परम्पराओं में इन संस्कारों का कुछ परिवर्तित रूप दिखाई देता है। वह परिवर्तन भी उत्तरकाल के साहित्य में दृग्गोचर होता है। तीर्थङ्करों के पंच कल्याणकों का कथन कुछ पुरातन है। उनके पंच कल्याणक हैं- 1. गर्भ कल्याणक 2. जन्मकल्याणक 3. दीक्षा कल्याणक 4. केवलज्ञान कल्याणक एवं 5. निर्वाण कल्याणक। प्रस्तुत आलेख में वर्ण को कर्म से सम्बद्ध निरूपित करते हुए जातिवाद का खण्डन किया गया है तथा ब्राह्मण का अत्यन्त श्रेष्ठ आचरणयुक्त पुरुष के रूप में संस्थापन किया गया है। आश्रम-व्यवस्था एवं संस्कारों के सम्बन्ध में जैन एवं बौद्ध परम्परानुसार संक्षेप में कथन किया गया है। वर्ण-व्यवस्था एवं जातिविमर्श वर्णाश्रमधर्म भारतीय संस्कृति की अत्यन्त प्राचीन सामाजिक व्यवस्था है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ये चार वर्ण तीर्थंकर महावीर एवं गौतम बुद्ध के जीवनकाल में भी प्रचलित थे। यही नहीं, उस समय इन चारों का स्वरूप गुण एवं कर्म के आधार पर न रहकर जन्म के आधार पर प्रचलित हो गया था, अर्थात् ये जाति का स्वरूप ग्रहण कर चुके थे।' जन्म से बाह्मण होना उच्चता का एवं जन्म से शूद्र होना निम्नता का सूचक हो गया था । जो मनुष्य के समीचीन सामाजिकआध्यात्मिक विकास में बाधक प्रतीत हुआ । इसलिए जैन एवं बौद्ध परम्परा ने इसका पर्याप्त विरोध किया तथा प्रत्येक मानव को समानता एवं सम्मानपूर्ण जीवन जीने की वकालत की। यही कारण है कि जैन एवं बौद्ध धर्म में सभी वर्गों के मानव
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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