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________________ 407 स्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण एवं उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना मस्तकसूचिविनाशात्तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः । तद्वत्कर्मनाशो हि मोहनीयक्षये नित्यम् ।। छद्मस्थवीतरागः काल सो ऽन्तर्मुहूर्तमथ भूत्वा युगपद् विविधावरणान्तरायकर्मक्षयमवाप्य । शाश्वतमनन्तमनतिशयमनुपममनुत्तरं निरवशेषम् । सम्पूर्णमप्रतिहतं सम्प्राप्तः केवलज्ञानम् ।। प्रशमरतिप्रकरण, 267-269 पहले मोहकर्म का क्षय होता है, फिर युगपद् रूप से ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तरायकर्म का नाश होकर केवलज्ञान प्रकट होता है। प्रशमरति में बताया गया है कि वह केवलज्ञान शाश्वत, अनन्त, अनतिशय, अनुपम, अनुत्तर, निरवशेष, सम्पूर्ण एवं अप्रतिहत होता है । (ii) तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् । - तत्त्वार्थसूत्र, 10.5 सिद्धस्योर्ध्वं मुक्तस्यालोकान्ताद् गतिर्भवति । लोकाग्रतः सिध्यति साकारेणोपयोगेन । प्रशमरतिप्रकरण, 288 आठों कर्मों का क्षय होने के पश्चात् मुक्त जीव लोक के अग्र भाग में जाकर अवस्थित हो जाता है। प्रशमरति में कहा गया है कि वह साकारोपयोग में सिद्ध होकर लोकाग्र में अवस्थित होता है। (iii) पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः- तत्त्वार्थसूत्र, 10.6 पूर्वप्रयोगसिद्धेर्बन्धच्छेदादसंगभावाच्च । गतिपरिणामाच्च तथा सिद्धस्योर्ध्वं गतिः सिद्धा ।। प्रशमरतिप्रकरण, 294 मुक्त जीव की पूर्व प्रयोग के कारण, असंग होने से, बन्ध का छेदन होने से तथा उस प्रकार का गति-परिणाम होने से लोक के ऊर्ध्व भाग की ओर गति होती है। प्रशमरतिप्रकरण और तत्त्वार्थसूत्र : पारस्परिक भेद प्रशमरतिप्रकरण एवं तत्त्वार्थसूत्र में जिन बिन्दुओं पर पारस्परिक भेद दृष्टिगोचर होता उनमें से कुछ प्रमुख विषयों पर यहाँ विचार किया जा रहा है (1) नव तत्त्व- तत्त्वार्थसूत्र में सात तत्त्व निरूपित हैं, जबकि प्रशमरतिप्रकरण नौ पदार्थों या तत्त्वों का उल्लेख है, यथा
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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